इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दीन शब्द को सामान्यीकृत करके धर्म या मज़हब के साथ एकस्वर करना चिंतन के सारे दरवाज़ों को बंद करना है. मनुष्य चाहता भी यही है. बाप-दादा के मज़हब पर रहने में ही भलाई है. चिंतन की आज़ादी देने से बाप-दादा के मज़हब को खतरा हो सकता है. चिंतन का सम्बन्ध अक्ल से है और अक्ल अच्छे-बुरे की पहचान कराती है. इसलिए अक्ल की खिड़कियाँ अगर बंद कर दी जाएँ तो अच्छाई-बुराई की परख की संभावनाएं भी समाप्त हो जायेंगी. और बस, बाप-दादा जिस धर्म का पालन करते आए हैं, उसी पर चलते रहो, कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत ही क्या है की स्थिति पैदा हो जायेगी. नबीश्री ने जब मक्के के मुशरिकों को दीन की ओर बुलाया तो उनके सामने यही समस्या थी. बाप-दादा से चले आ रहे धर्म को छोड़ना उनके लिए असंभव सा प्रतीत होता था. श्रीप्रद कुरआन ने उनके समक्ष महत्त्वपूर्ण प्रश्न रखा -"क्या अपने पूर्वजों के रास्ते पर ही चलते जाओगे चाहे उन्होंने अक्ल से काम न लिया हो ?" स्पष्ट है कि अपने लिए दीन को चुनना अक्ल का काम है. मुसलामानों ने भी आगे चलकर जब वह विभिन्न सम्प्रदायों में बँट गए, ऐसा ही किया. इस्लामी शरीअताचार्यों ने अपने-अपने मस्लकों के क़िले निर्मित कर लिए और दूसरे मस्लकों के लिए आक्रामक रुख अख्तियार किया. मज़हब का स्वभाव ही यही है. अल्लामा इकबाल लाख कहते रहें -'मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना' किंतु सच्चाई यही है कि मज़हब इसके अतिरिक्त और कुछ सिखाता ही नहीं. हाँ 'आपस' शब्द का अर्थ यदि एक मज़हब मानने वालों के बीच आपसी रिश्ते से है, तो इकबाल बिकुल ठीक कहते हैं. एक मसलक, एक सम्प्रदाय, एक मज़हब, एक धर्म के लोग तो आपस में मिल-जुल कर रहेंगे ही. दीन की स्थिति इस से भिन्न है. वह मज़हब, मसलक या धर्म की तरह छोटे-छोटे दायरे नहीं बनाता. वह परम सत्ता की अहदीयत (विशिष्टता) और वाहिदीयत (एकत्त्व) को मध्य का बिन्दु स्वीकार करते हुए ऐसा वृत्त बनाता है कि केन्द्रीय बिन्दु अर्थात परम सत्ता की विशिष्टता और उसके एकत्त्व की ओर, वृत्त की किसी दिशा से चलने वाला बराबर का फासला तय करता है और मध्य के बिन्दु पर आकर बिना किसी भेद-भाव के एक हो जाता है. ध्यान देने की बात यह है कि वृत्त का केन्द्रीय बिन्दु होते हुए भी वह अदृश्य रहता है. अब यदि कोई केन्द्र बिन्दु को किसी एक दिशा में थोड़ा इधर उधर खिसका दे और वृत्त को यथास्थान रहने दे. फिर यह समझ ले कि वह केन्द्रीय बिन्दु से अधिक निकट है तो यह उसका मात्र भ्रम होगा. कारण यह है कि हर केन्द्र-बिन्दु अपना एक अलग वृत्त बनाता है. एक ही वृत्त के कई केन्द्र-बिन्दु नहीं हो सकते. बात कड़वी अवश्य है किंतु मुस्लिम आचार्यों ने ऐसा ही किया.
मज़हब या धर्म का छोटे-छोटे दायरों में सिमटा होना ही उनके पारस्परिक वैमनस्य का कारण बनता है. किसी मज़हब को स्वीकार करना या न करना मनुष्य के अधिकार में है. किंतु जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जहाँ यह मनुष्य यह जानने को उत्सुक रहता है कि इलाज के लिए कौन डाक्टर अच्छा होगा, मुक़द्दमे के लिय किस वकील को करना ठीक है, शिक्षा के लिए किस संस्था को चुना जाय, वहीं लोक और परलोक के सन्दर्भ में एक क्षण को भी यह सोचना-विचारना नहीं चाहता कि इस दिशा में जीवन का प्रकाश कहाँ से प्राप्त किया जाय. निर्धन, विपन्न, अशिक्षित, पिछडे समाज की बात और है. उसके पास कोई विकल्प नहीं होता. किंतु जो स्वयं को बुद्धिजीवी समझते और मानते हैं, वे परम्परा की लीक क्यों पीटते हैं, क्यों पैतृक धर्म का पालन करते हुए अक्ल की खिड़कियाँ दरवाज़े बंद रखते हैं, यह विचारणीय अवश्य है. मृग-मरीचिका को पानी समझ कर उसके लिए दौड़ते चले जाना बद-अक़ली नहीं है तो और क्या है !
वह धर्म, मज़हब, मसलक, पंथ या सम्प्रदाय जो मानव जाति को टुकडों में बांटता हो, और कुछ भले ही हो, सत्य नहीं हो सकता, और इस आधार पर दीन की परिधियों में भी उसे नहीं रख जा सकता, इतना निश्चित है. ठहरा और रुका हुआ पानी किसी धर्म और मज़हब में शुद्ध नहीं माना जाता. फिर चिंतन का गतिशील और प्रवाहमय न होना और उसे मज़हब और धर्म के सीमित ट्रेडमार्क में सील कर देना किस प्रकार उचित ठहराया जा सकता है. मज़हब के नाम पर जितनी जंगें होती हैं, जितने दंगे- फ़साद होते है, जितना रक्त बहाया जाता है वह किसी से ढका-छुपा नहीं है. उसका मूल कारण यह है कि जहाँ दीन अपने मूल में आध्यात्मिक है, वहीं मज़हब का आधार बाह्याचार और कर्मकांड हैं. और मजहबों की बात जाने दीजिय, मुसलमान विभिन्न मस्लकों में केवल इसलिए बँटे हैं कि शरीयत-प्रदत्त बाह्याचार ही उनकी मज़हबी सोच का मूलाधार हैं. शरीयत का मूल उद्देश्य है दीन की आत्मा को सुरक्षित रखना और दीन में आस्था रखने वालों को उसके अनुरूप देखना. स्थिति यह है कि कौन नमाज़ कैसे पढता है, वजू किस प्रकार करता है, रोजा कब खोलता है, किसकी कौन सी मस्जिद है, दाढी रखता है या नहीं, रखता है तो उसका साइज़ क्या है, पाजामे के टखने खुले रखता है या ढके हुए, अजादारी और ताजियेदारी क्यों करता है, काफिरों के साथ उसका क्या सुलूक है, खलीफाओं को किस रूप में स्वीकार करता है, हदीसों को कितना महत्त्व देता है, यदि महत्त्व देता है तो किन हदीसों को प्रामाणिक मानता है, श्रीपद कुरआन की तिलावत करता है या नहीं, अगर करता है तो उसका शीन-काफ दुरुस्त है या नहीं, जैसी ढेर सारी छोटी-छोटी बातों में उलझा हुआ शरीयताचार्यों का समूह आज इस्लाम की पहचान बन कर रह गया है.
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इस्लाम शब्द 'सिल्म' से बना है जिसका अर्थ होता है गर्दन झुकाना. इस्लाम का अर्थ है अपना सब कुछ परम सत्ता को समर्पित कर देना. समर्पण के लिए अंग्रेज़ी में दो शब्द हैं. एक है सरेंडर और दूसरा है सबमिशन. सरेंडर किसी विवशता या दबाव के नतीजे में होता है जबकि सबमिशन अपनी खुशी से किया जाता है. इस्लाम किसी दबाव या ज़ोर-ज़बरदस्ती की बात नहीं करता. वह चाहता है कि अल्लाह के बन्दे अपनी खुशी से ख़ुद को अल्लाह के सुपुर्द करें. श्रीप्रद कुरआन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है "ला इक्राहि फिद्दीन" दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है. दीन जिस ख़ुद सुपुर्दगी या सबमिशन की बात करता है वह वस्तुतः लघु से विराट की ओर बढाया गया एक क़दम है. पानी की बूँद कितनी ही लघु क्यों न हो जब वह दरया को समर्पित हो जाती है तो उसका अस्तित्त्व समाप्त नहीं होता, हाँ दरिया की विराटता के साथ जुड़कर वह स्वयं भी विराट हो जाती है. अब जो लोग उसकी लघुता तलाश करना चाहते हैं उन्हें वह दिखायी नहीं देती.
नबीश्री की जिंदगी में भी जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनमें दो प्रकार के लोग थे. एक तो वे थे जिन्होंने अपनी खुशी से इस्लाम स्वीकार किया था. दूसरे वे थे जिनके समक्ष कोई विकल्प नहीं रह गया था. मक्का विजय के बाद जो लोग मुसलमान हुए उनमें से अधिकतर निश्चय ही दूसरी श्रेणी के थे. यह लोग संभ्रांत, संपन्न और शक्तिशाली थे. परिणाम यह हुआ कि नबीश्री के निधनोपरांत, कुछ ही वर्षों के भीतर, इस्लाम की व्याख्या राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली और शक्ति-संपन्न समुदाय के हाथ में आ गई.
मुसलामानों ने सामान्य रूप से आतंरिक सत्य (दाखिली हक़ायक़) के बजाय बाह्य सत्य (खारजी हक़ायक़) को चुना. नबीश्री दाढी कैसी रखते थे, सिर के बालों की क्या स्थिति थी, आंखों में कैसा सुरमा लगाते थे, खिजाब किस तरह करते थे जैसी बातों पर ही मुसलामानों की दृष्टि केंद्रित थी. इस तथ्य पर बहुत कम विचार किया गया कि उनका अखलाक कैसा था, काफ़िरों और मुशरिकों के साथ उनका क्या बर्ताव था, मित्रों को किस रूप में बरतते थे, पति, पिता, भतीजे और भांजे के रूप में वे कैसे थे, उन्होंने किसके साथ नेकियाँ कीं, किसके लिए गज़बनाक हुए, किसको आत्मीय भाव से पास बिठाया, किसे अपनी गोष्ठी से हटा दिया, सिर पर पत्थर पड़े और लहू-लुहान हो गए तो गुस्सा क्यों नहीं किया, उल्टे अत्याचार करने वालों के लिए दुआएं कीं कि वे उन्हें पहचानते नहीं, अल्लाह उन्हें समझ अता करे. मुसलामानों ने इन तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी, यह एक विचारणीय प्रश्न है. किंतु इतना तो निश्चित है कि यही बातें दीन को मज़हब में तब्दील करती चली गयीं.
दुखद स्थिति यह है कि प्रारम्भ से ही मुसलामानों की दृष्टि बाह्य-सत्य (खारजी हक़ायक़) पर केंद्रित रही. नबीश्री (स.) ने अज़ान के लिए जब श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) को मनोनीत किया तो कुछ मुसलामानों को यह बात पसंद नहीं आई. एक कारण तो यह था कि श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) हबश के रहने वाले थे और काले थे.दूसरा यह कि उनका उच्चारण भी अरबों के उच्चारण से पर्याप्त भिन्न था. वह 'श' को 'स' उच्चारित करते थे. पहली बात पर तो आपत्ति इसलिए नहीं कर सके कि उन्होंने नबीश्री (स.) से बार-बार सुन रखा था कि इस्लाम गोरे और काले में कोई भेद नहीं करता. अब सोचा कि आपत्ति यदि दूसरी बात को लेकर की जाय तो नबीश्री (स.) उसे निश्चय ही स्वीकार कर लेंगे. कुछ सहाबी नबीश्री की सेवा में उपस्थित हुए और बड़े विनम्र भाव से बोले. "हमें दुःख है, आपने बिलाल को मुवज़्ज़िन बना दिया !" नबीश्री (स.) ने पूछा "तो इसमें क्या बुराई है ?" उसी विनम्रता से बोले " हुज़ूर वह तो 'शीन' साफ़ नहीं कहते. 'अश्हदुअन्न' को 'अस्हदुअन्न' कहते हैं." नबीश्री (स.) ने उत्तर दिया "सीनु बिलालिन शीनुन इन्दल्लाह" यानी "बिलाल का सीन अल्लाह के निकट शीन है." गोया नबीश्री ने संकेत कर दिया कि इस्लाम नीयत देखता है उच्चारण नहीं, अंतरात्मा देखता है बाह्याचार नहीं.
अल्लाहु-अकबर का नारा मुसलामानों के लिए नारए-तकबीर है और इसे सामान्य मुसलमान इस्लामी संस्कृति से जोड़ कर देखता है. वैसे तो संस्कृति हिंदू मुसलमान या ईसाई नहीं होती. वह मूल रूप से भौगोलिक चौहद्दियों से नियंत्रित होती है. फिर भी यदि इसे इस्लामिक कल्चर का हिस्सा मान भी लिया जाय, तो यह इस्लामिक कल्चर उस समय होगा जब इसका सही प्रयोजन हो. उद्देश्य का सही होना अनिवार्य होगा. यदि बेगुनाहों के घर जलाने में अल्लाहु-अकबर के नारे लगाए जाएँ तो निश्चित रूप से उसका इस्लाम से कोई सम्बन्ध न होगा. नाबीश्री (स.) के नवासे हज़रत इमाम हुसैन (र.) को जिन लोगों ने शहीद किया वह भी अल्लाहु अकबर के नारे लगा रहे थे. क्या यह भी इस्लामी कल्चर है ? एक अरबी शायर ने इस अवसर के लिए कहा था-" वयुकब्बिरून बि'अन्कुतिल्त व् इन्नमा / क़तलू ब'क अत्तक्बीरा व् तहलीला." अर्थात अरे ! ये आपको क़त्ल करके तकबीर के नारे लगा रहे हैं. हालांकि सत्य यह है कि ये आपके साथ तक्बीरो-तहलील के गले पर छुरी चला रहे हैं. आज भी दंगे-फ़साद और आतंकवादी घटनाओं के अवसर पर 'अल्लाहु-अकबर' के नारे लगाकर वास्तव में "तकबीर" (परम सत्ता के सर्व-शक्तिमान होने की घोषणा) के गले पर छुरी चलाई जा रही है. वस्तुतः किसी भी कृत्य को उस समय तक इस्लाम से नहीं जोड़ा जा सकता जब तक उसका उद्देश्य इस्लाम के स्वभाव के अनुरूप न हो. आज अल्लाहु-अकबर के नारे से दीन की आत्मा पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है और उसका स्थान मज़हब और सियासत ने ले लिया है. हिन्दुओं में 'हर हर महादेव' की भी यही स्थिति है. इन नारों के माध्यम से अल्लाह की श्रेष्ठता घोषित करना अभीष्ट नहीं होता. अभीष्ट होता है अपने गुट या समुदाय का वर्चस्व घोषित करना.यहाँ मुझे 1980 में लिखी गई अपनी एक ग़ज़ल के दो शेर याद आ गए -"हम तो बस रोशनी साथ लेकर चले / क्या खता थी हमारी कि पत्थर चले" और "निकले 'हर हर महादेव' घर फूंकने / जान लेने को "अल्लाहु अकबर" चले" कदाचित इसीलिए इस्लाम सियासत की तालीम नहीं देता. वह हिकमत ( दीन की सीमाओं में रहते हुए समय और परिस्थितियों की नब्ज़ को पहचानना) पर बल देता है. सियासत भी अरबी शब्द है किंतु मेरी जानकारी में श्रीप्रद कुरआन में इस शब्द का कहीं प्रयोग नहीं हुआ है. जबकि सच्चाई यह है कि मुस्लिम धर्माचार्यों द्बारा इस्लामी-सियासत शब्द का खूब-खूब प्रयोग होता है. मज़हब में सियासत के लिए भले ही जगह हो, दीन में सियासत के लिए कोई जगह नहीं होती.
******************* ( क्रमशः )
दीन शब्द को सामान्यीकृत करके धर्म या मज़हब के साथ एकस्वर करना चिंतन के सारे दरवाज़ों को बंद करना है. मनुष्य चाहता भी यही है. बाप-दादा के मज़हब पर रहने में ही भलाई है. चिंतन की आज़ादी देने से बाप-दादा के मज़हब को खतरा हो सकता है. चिंतन का सम्बन्ध अक्ल से है और अक्ल अच्छे-बुरे की पहचान कराती है. इसलिए अक्ल की खिड़कियाँ अगर बंद कर दी जाएँ तो अच्छाई-बुराई की परख की संभावनाएं भी समाप्त हो जायेंगी. और बस, बाप-दादा जिस धर्म का पालन करते आए हैं, उसी पर चलते रहो, कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत ही क्या है की स्थिति पैदा हो जायेगी. नबीश्री ने जब मक्के के मुशरिकों को दीन की ओर बुलाया तो उनके सामने यही समस्या थी. बाप-दादा से चले आ रहे धर्म को छोड़ना उनके लिए असंभव सा प्रतीत होता था. श्रीप्रद कुरआन ने उनके समक्ष महत्त्वपूर्ण प्रश्न रखा -"क्या अपने पूर्वजों के रास्ते पर ही चलते जाओगे चाहे उन्होंने अक्ल से काम न लिया हो ?" स्पष्ट है कि अपने लिए दीन को चुनना अक्ल का काम है. मुसलामानों ने भी आगे चलकर जब वह विभिन्न सम्प्रदायों में बँट गए, ऐसा ही किया. इस्लामी शरीअताचार्यों ने अपने-अपने मस्लकों के क़िले निर्मित कर लिए और दूसरे मस्लकों के लिए आक्रामक रुख अख्तियार किया. मज़हब का स्वभाव ही यही है. अल्लामा इकबाल लाख कहते रहें -'मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना' किंतु सच्चाई यही है कि मज़हब इसके अतिरिक्त और कुछ सिखाता ही नहीं. हाँ 'आपस' शब्द का अर्थ यदि एक मज़हब मानने वालों के बीच आपसी रिश्ते से है, तो इकबाल बिकुल ठीक कहते हैं. एक मसलक, एक सम्प्रदाय, एक मज़हब, एक धर्म के लोग तो आपस में मिल-जुल कर रहेंगे ही. दीन की स्थिति इस से भिन्न है. वह मज़हब, मसलक या धर्म की तरह छोटे-छोटे दायरे नहीं बनाता. वह परम सत्ता की अहदीयत (विशिष्टता) और वाहिदीयत (एकत्त्व) को मध्य का बिन्दु स्वीकार करते हुए ऐसा वृत्त बनाता है कि केन्द्रीय बिन्दु अर्थात परम सत्ता की विशिष्टता और उसके एकत्त्व की ओर, वृत्त की किसी दिशा से चलने वाला बराबर का फासला तय करता है और मध्य के बिन्दु पर आकर बिना किसी भेद-भाव के एक हो जाता है. ध्यान देने की बात यह है कि वृत्त का केन्द्रीय बिन्दु होते हुए भी वह अदृश्य रहता है. अब यदि कोई केन्द्र बिन्दु को किसी एक दिशा में थोड़ा इधर उधर खिसका दे और वृत्त को यथास्थान रहने दे. फिर यह समझ ले कि वह केन्द्रीय बिन्दु से अधिक निकट है तो यह उसका मात्र भ्रम होगा. कारण यह है कि हर केन्द्र-बिन्दु अपना एक अलग वृत्त बनाता है. एक ही वृत्त के कई केन्द्र-बिन्दु नहीं हो सकते. बात कड़वी अवश्य है किंतु मुस्लिम आचार्यों ने ऐसा ही किया.
मज़हब या धर्म का छोटे-छोटे दायरों में सिमटा होना ही उनके पारस्परिक वैमनस्य का कारण बनता है. किसी मज़हब को स्वीकार करना या न करना मनुष्य के अधिकार में है. किंतु जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जहाँ यह मनुष्य यह जानने को उत्सुक रहता है कि इलाज के लिए कौन डाक्टर अच्छा होगा, मुक़द्दमे के लिय किस वकील को करना ठीक है, शिक्षा के लिए किस संस्था को चुना जाय, वहीं लोक और परलोक के सन्दर्भ में एक क्षण को भी यह सोचना-विचारना नहीं चाहता कि इस दिशा में जीवन का प्रकाश कहाँ से प्राप्त किया जाय. निर्धन, विपन्न, अशिक्षित, पिछडे समाज की बात और है. उसके पास कोई विकल्प नहीं होता. किंतु जो स्वयं को बुद्धिजीवी समझते और मानते हैं, वे परम्परा की लीक क्यों पीटते हैं, क्यों पैतृक धर्म का पालन करते हुए अक्ल की खिड़कियाँ दरवाज़े बंद रखते हैं, यह विचारणीय अवश्य है. मृग-मरीचिका को पानी समझ कर उसके लिए दौड़ते चले जाना बद-अक़ली नहीं है तो और क्या है !
वह धर्म, मज़हब, मसलक, पंथ या सम्प्रदाय जो मानव जाति को टुकडों में बांटता हो, और कुछ भले ही हो, सत्य नहीं हो सकता, और इस आधार पर दीन की परिधियों में भी उसे नहीं रख जा सकता, इतना निश्चित है. ठहरा और रुका हुआ पानी किसी धर्म और मज़हब में शुद्ध नहीं माना जाता. फिर चिंतन का गतिशील और प्रवाहमय न होना और उसे मज़हब और धर्म के सीमित ट्रेडमार्क में सील कर देना किस प्रकार उचित ठहराया जा सकता है. मज़हब के नाम पर जितनी जंगें होती हैं, जितने दंगे- फ़साद होते है, जितना रक्त बहाया जाता है वह किसी से ढका-छुपा नहीं है. उसका मूल कारण यह है कि जहाँ दीन अपने मूल में आध्यात्मिक है, वहीं मज़हब का आधार बाह्याचार और कर्मकांड हैं. और मजहबों की बात जाने दीजिय, मुसलमान विभिन्न मस्लकों में केवल इसलिए बँटे हैं कि शरीयत-प्रदत्त बाह्याचार ही उनकी मज़हबी सोच का मूलाधार हैं. शरीयत का मूल उद्देश्य है दीन की आत्मा को सुरक्षित रखना और दीन में आस्था रखने वालों को उसके अनुरूप देखना. स्थिति यह है कि कौन नमाज़ कैसे पढता है, वजू किस प्रकार करता है, रोजा कब खोलता है, किसकी कौन सी मस्जिद है, दाढी रखता है या नहीं, रखता है तो उसका साइज़ क्या है, पाजामे के टखने खुले रखता है या ढके हुए, अजादारी और ताजियेदारी क्यों करता है, काफिरों के साथ उसका क्या सुलूक है, खलीफाओं को किस रूप में स्वीकार करता है, हदीसों को कितना महत्त्व देता है, यदि महत्त्व देता है तो किन हदीसों को प्रामाणिक मानता है, श्रीपद कुरआन की तिलावत करता है या नहीं, अगर करता है तो उसका शीन-काफ दुरुस्त है या नहीं, जैसी ढेर सारी छोटी-छोटी बातों में उलझा हुआ शरीयताचार्यों का समूह आज इस्लाम की पहचान बन कर रह गया है.
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इस्लाम शब्द 'सिल्म' से बना है जिसका अर्थ होता है गर्दन झुकाना. इस्लाम का अर्थ है अपना सब कुछ परम सत्ता को समर्पित कर देना. समर्पण के लिए अंग्रेज़ी में दो शब्द हैं. एक है सरेंडर और दूसरा है सबमिशन. सरेंडर किसी विवशता या दबाव के नतीजे में होता है जबकि सबमिशन अपनी खुशी से किया जाता है. इस्लाम किसी दबाव या ज़ोर-ज़बरदस्ती की बात नहीं करता. वह चाहता है कि अल्लाह के बन्दे अपनी खुशी से ख़ुद को अल्लाह के सुपुर्द करें. श्रीप्रद कुरआन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है "ला इक्राहि फिद्दीन" दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है. दीन जिस ख़ुद सुपुर्दगी या सबमिशन की बात करता है वह वस्तुतः लघु से विराट की ओर बढाया गया एक क़दम है. पानी की बूँद कितनी ही लघु क्यों न हो जब वह दरया को समर्पित हो जाती है तो उसका अस्तित्त्व समाप्त नहीं होता, हाँ दरिया की विराटता के साथ जुड़कर वह स्वयं भी विराट हो जाती है. अब जो लोग उसकी लघुता तलाश करना चाहते हैं उन्हें वह दिखायी नहीं देती.
नबीश्री की जिंदगी में भी जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनमें दो प्रकार के लोग थे. एक तो वे थे जिन्होंने अपनी खुशी से इस्लाम स्वीकार किया था. दूसरे वे थे जिनके समक्ष कोई विकल्प नहीं रह गया था. मक्का विजय के बाद जो लोग मुसलमान हुए उनमें से अधिकतर निश्चय ही दूसरी श्रेणी के थे. यह लोग संभ्रांत, संपन्न और शक्तिशाली थे. परिणाम यह हुआ कि नबीश्री के निधनोपरांत, कुछ ही वर्षों के भीतर, इस्लाम की व्याख्या राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली और शक्ति-संपन्न समुदाय के हाथ में आ गई.
मुसलामानों ने सामान्य रूप से आतंरिक सत्य (दाखिली हक़ायक़) के बजाय बाह्य सत्य (खारजी हक़ायक़) को चुना. नबीश्री दाढी कैसी रखते थे, सिर के बालों की क्या स्थिति थी, आंखों में कैसा सुरमा लगाते थे, खिजाब किस तरह करते थे जैसी बातों पर ही मुसलामानों की दृष्टि केंद्रित थी. इस तथ्य पर बहुत कम विचार किया गया कि उनका अखलाक कैसा था, काफ़िरों और मुशरिकों के साथ उनका क्या बर्ताव था, मित्रों को किस रूप में बरतते थे, पति, पिता, भतीजे और भांजे के रूप में वे कैसे थे, उन्होंने किसके साथ नेकियाँ कीं, किसके लिए गज़बनाक हुए, किसको आत्मीय भाव से पास बिठाया, किसे अपनी गोष्ठी से हटा दिया, सिर पर पत्थर पड़े और लहू-लुहान हो गए तो गुस्सा क्यों नहीं किया, उल्टे अत्याचार करने वालों के लिए दुआएं कीं कि वे उन्हें पहचानते नहीं, अल्लाह उन्हें समझ अता करे. मुसलामानों ने इन तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी, यह एक विचारणीय प्रश्न है. किंतु इतना तो निश्चित है कि यही बातें दीन को मज़हब में तब्दील करती चली गयीं.
दुखद स्थिति यह है कि प्रारम्भ से ही मुसलामानों की दृष्टि बाह्य-सत्य (खारजी हक़ायक़) पर केंद्रित रही. नबीश्री (स.) ने अज़ान के लिए जब श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) को मनोनीत किया तो कुछ मुसलामानों को यह बात पसंद नहीं आई. एक कारण तो यह था कि श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) हबश के रहने वाले थे और काले थे.दूसरा यह कि उनका उच्चारण भी अरबों के उच्चारण से पर्याप्त भिन्न था. वह 'श' को 'स' उच्चारित करते थे. पहली बात पर तो आपत्ति इसलिए नहीं कर सके कि उन्होंने नबीश्री (स.) से बार-बार सुन रखा था कि इस्लाम गोरे और काले में कोई भेद नहीं करता. अब सोचा कि आपत्ति यदि दूसरी बात को लेकर की जाय तो नबीश्री (स.) उसे निश्चय ही स्वीकार कर लेंगे. कुछ सहाबी नबीश्री की सेवा में उपस्थित हुए और बड़े विनम्र भाव से बोले. "हमें दुःख है, आपने बिलाल को मुवज़्ज़िन बना दिया !" नबीश्री (स.) ने पूछा "तो इसमें क्या बुराई है ?" उसी विनम्रता से बोले " हुज़ूर वह तो 'शीन' साफ़ नहीं कहते. 'अश्हदुअन्न' को 'अस्हदुअन्न' कहते हैं." नबीश्री (स.) ने उत्तर दिया "सीनु बिलालिन शीनुन इन्दल्लाह" यानी "बिलाल का सीन अल्लाह के निकट शीन है." गोया नबीश्री ने संकेत कर दिया कि इस्लाम नीयत देखता है उच्चारण नहीं, अंतरात्मा देखता है बाह्याचार नहीं.
अल्लाहु-अकबर का नारा मुसलामानों के लिए नारए-तकबीर है और इसे सामान्य मुसलमान इस्लामी संस्कृति से जोड़ कर देखता है. वैसे तो संस्कृति हिंदू मुसलमान या ईसाई नहीं होती. वह मूल रूप से भौगोलिक चौहद्दियों से नियंत्रित होती है. फिर भी यदि इसे इस्लामिक कल्चर का हिस्सा मान भी लिया जाय, तो यह इस्लामिक कल्चर उस समय होगा जब इसका सही प्रयोजन हो. उद्देश्य का सही होना अनिवार्य होगा. यदि बेगुनाहों के घर जलाने में अल्लाहु-अकबर के नारे लगाए जाएँ तो निश्चित रूप से उसका इस्लाम से कोई सम्बन्ध न होगा. नाबीश्री (स.) के नवासे हज़रत इमाम हुसैन (र.) को जिन लोगों ने शहीद किया वह भी अल्लाहु अकबर के नारे लगा रहे थे. क्या यह भी इस्लामी कल्चर है ? एक अरबी शायर ने इस अवसर के लिए कहा था-" वयुकब्बिरून बि'अन्कुतिल्त व् इन्नमा / क़तलू ब'क अत्तक्बीरा व् तहलीला." अर्थात अरे ! ये आपको क़त्ल करके तकबीर के नारे लगा रहे हैं. हालांकि सत्य यह है कि ये आपके साथ तक्बीरो-तहलील के गले पर छुरी चला रहे हैं. आज भी दंगे-फ़साद और आतंकवादी घटनाओं के अवसर पर 'अल्लाहु-अकबर' के नारे लगाकर वास्तव में "तकबीर" (परम सत्ता के सर्व-शक्तिमान होने की घोषणा) के गले पर छुरी चलाई जा रही है. वस्तुतः किसी भी कृत्य को उस समय तक इस्लाम से नहीं जोड़ा जा सकता जब तक उसका उद्देश्य इस्लाम के स्वभाव के अनुरूप न हो. आज अल्लाहु-अकबर के नारे से दीन की आत्मा पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है और उसका स्थान मज़हब और सियासत ने ले लिया है. हिन्दुओं में 'हर हर महादेव' की भी यही स्थिति है. इन नारों के माध्यम से अल्लाह की श्रेष्ठता घोषित करना अभीष्ट नहीं होता. अभीष्ट होता है अपने गुट या समुदाय का वर्चस्व घोषित करना.यहाँ मुझे 1980 में लिखी गई अपनी एक ग़ज़ल के दो शेर याद आ गए -"हम तो बस रोशनी साथ लेकर चले / क्या खता थी हमारी कि पत्थर चले" और "निकले 'हर हर महादेव' घर फूंकने / जान लेने को "अल्लाहु अकबर" चले" कदाचित इसीलिए इस्लाम सियासत की तालीम नहीं देता. वह हिकमत ( दीन की सीमाओं में रहते हुए समय और परिस्थितियों की नब्ज़ को पहचानना) पर बल देता है. सियासत भी अरबी शब्द है किंतु मेरी जानकारी में श्रीप्रद कुरआन में इस शब्द का कहीं प्रयोग नहीं हुआ है. जबकि सच्चाई यह है कि मुस्लिम धर्माचार्यों द्बारा इस्लामी-सियासत शब्द का खूब-खूब प्रयोग होता है. मज़हब में सियासत के लिए भले ही जगह हो, दीन में सियासत के लिए कोई जगह नहीं होती.
******************* ( क्रमशः )
2 टिप्पणियां:
डाक्टर साहिबा,
आप इतनी बढ़िया जानकारी इसलाम के बारे में दे रही हैं यदि इसे इस देश के नेता और धर्म के वह ठेकेदार पढ़े जो धर्म के नाम पर निर्दोष लोगो का खून बह्वाते है और आपस में लड़वाते है तो समाज का वाकई कुछ भला हो जाएगा / फिर भी इस्लाम और दीन के बारे में इतनी गहरी जानकारी देने के लिए आपको तहे दिल से शुक्रिया / काबुल फरमाइए /
हो सकता है इस्लाम का स्वरूप पहले-पहल(ग्यारहवी सदी से पहले) कुछ आप के बताये अनुसार ही रहा हो, पर आज की बात साफ शब्दों में कीजिये. अकादमिक बहस को वो मुल्ले-मौलवी नहीं मानते जो जेहाद के नाम पर आतंकवाद और आत्मघाती हमलों की पैरवी करते हैं. इस तरह के कठमुल्लों का तर्क होता है की कुरान कौन ज़्यादा जानता है और कौन कुरान के ज़्यादा करीब है, हम, या वो दाढ़ी न रखने वाले, सुन्नत का पाबन्दी से पालन भी न करने वाले, बुतपरस्तों की तरफदारी करने वाले, भ्रष्ट करने वाली शिक्षा के हिमायती.
यक्ष प्रश्न यह है की, क्या आपकी बातों से इस्लामिक जगत इत्तेफाक रखने को तैयार है? क्या आप में हिम्मत है की किसी मुस्लिम बहुल इलाके में यह कह सकें की शरियत को शब्दशः न मानकर उसे दार्शनिक भावों के साथ अपने विचरों में उतारें, न की तालिबानों की तरह खून बहने पर आमादा हो जायें? अपने तर्कों को थोड़ा विराम दें, और देखें की इस्लाम के नाम पर अरब राष्ट्रों और इरान में क्या-क्या नहीं हो रहा है. कुछ ही दिनों पहले ख़बर आई थी की इरान में शरिया कानून के अनुसार एक छः साल की गरीब बच्ची के सार्वजनिक तौर पर हाथ काट लिए गए, उसका गुनाह सिर्फ़ इतना था की उसने भूख से बेहाल हो कर कुछ भोजन (शयद ब्रेड) चुरा लिया था. परदे का ज़रा सा उल्लंघन भी होने पर अफगान महिलाओं को क्या सजाएं दी जाती थीं, क्या उसके वीडियो लिंक आप देखना चाहेंगी? आप सज़ा-ऐ-मौत के हकदार हैं कुछ मुस्लिम देशों में अगर आप यह भी पूछ बैठते हैं की "संगीत और शराब को कहाँ हराम कहा गया है?" या "ज़मीं पर शराब हराम है पर जन्नत में इसकी नदियाँ बहतीं हैं, वहां क्यों हराम नहीं?" या "नमाज़ पाँच बार ही क्यों एक बार में ही क्यों नहीं अता नहीं की जा सकती?", इन प्रश्नों की तर्कसंगत व्याख्या हो सकती है पर यह सब पूछने की मनाही है. अब क्या किया जाए इस्लाम के ऐसे वर्ज़न का जो सूफियों को भी इस्लाम से अलग साबित करने पर आमादा है?
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