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शुक्रवार, 11 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.3

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 'दीन' का मूलाधार क्या है ? वह कौन से ऐसे तत्व हैं जिनके न होने की स्थिति में 'दीन' विलुप्त हो जाता है ? आम मुसलमान नमाज़, रोजा, हज, ज़कात, जिहाद को दीन का मूलाधार समझते हैं. किंतु सच्चाई यह है कि नमाज़ न पढने का आपको 'अजाब' तो होगा, पर नमाज़ न पढ़कर भी आप मुसलमान कहलायेंगे.रोजा न रखने के गुनाह आपके आमाल में भले ही लिख लिए जाएँ, आपके मुसलमान कहलाने पर आंच नहीं आएगी. ज़कात आप नहीं निकालते तो उसके पाप के भागीदार आप होंगे, लेकिन आपका मुस्लमान होना बरक़रार रहेगा. हज न कर पाने की स्थिति में आप एक पुण्य से वंचित अवश्य हो जायेंगे, फिरभी मुसलमान तो आप रहेंगे ही. जिहाद का आदेश आजाने पर आप स्वस्थ रहते हुए भी जिहाद में शरीक न हों तो एक सवाब आपके हाथ से निकल जायेगा, किंतु आपके मुसलमान होने पर कोई प्रश्न-चिह्न नहीं लगेगा. स्पष्ट है कि यह तत्व 'दीन' का मूलाधार नहीं हैं.यदि होते तो इनमें से किसी एक के भी न करने से ईमान खतरे में पड़ जाता.
श्रीप्रद कुरआन का पहला पारा है "अलिफ़-लाम-मीम." इसकी पहली सूरह "अल-बक़रा" की दूसरी-तीसरी आयतें देखिये. कहा गया है कि "निस्संदेह यह ( श्रीप्रद कुरआन) वही 'किताब' है.जो अल्लाह के पास 'सुरक्षित-पट्टिका' (लौहे-महफूज़) पर है.यह सात्विक जनों (मुत्तकियों) के लिए मार्ग-दर्शक (हिदायत) है जो अदृश्य पर ईमान लाते हैं और जो 'सलात' स्थापित करते हैं, और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से खर्च करते हैं."
उपर्युक्त आयतों में उल्लिखित तथ्यों को उसी क्रम में देखा जाना चाहिए जिस क्रम में श्रीप्रद कुरआन ने उन्हें हम तक पहुंचाया है. पहली बात सात्विकता की है. जो सात्विक नहीं हैं श्रीप्रद कुरआन उनके लिए मार्ग-दर्शक नहीं है. यहाँ आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि श्रीप्रद कुरआन ने तो स्वयं कहा है "हुदंल्लिन्नास" अर्थात श्रीप्रद कुरआन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मार्ग-दर्शक है.फिर यह विरोधाभास क्यों ? यहाँ थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है. जब यह कहा गया कि श्रीप्रद कुरआन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मार्ग दर्शक है तो एक एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया यानी वांछनीय योग्यता बता दी गई. स्पष्ट कर दिया गया कि मानवेतर प्राणियों के लिए श्रीप्रद कुरआन मार्ग-दर्शक नहीं है. अब यह मानव जाति चाहे अरब की हो या अमेरिका की या भारत की या किसी भी देश की, श्रीप्रद कुरआन सभी का मार्ग-दर्शन करेगा. किंतु उसके बाद एक मेरिट क्राइटेरिया विशिष्ट योग्यता की शर्त रख दी. केवल एलिजिबिल होना पर्याप्त नहीं है. इसलिए स्पष्ट कह दिया गया कि मार्ग-दर्शन की कक्षा में केवल वही प्रवेश पा सकते हैं जो सात्विक ( मुत्तकी) हैं.
सामान्य रूप से मुस्लिम आचार्यों द्वारा सात्विक या मुत्तकी उस व्यक्ति को बताया गया है जो अल्लाह का खौफ रखता हो या परहेजगार हो. किंतु यह विवेचन अधिक संतोष-प्रद नहीं प्रतीत होता. मुत्तकी वह है जिसमें "तक़वा" हो. और "तक़वा" केवल अल्लाह का खौफ रखना नहीं है. मैं यहाँ सैयद महमूद आलूसी बगदादी का एक शेर उद्धृत करूँगा जो अरबी भाषा में है. शेर का भावार्थ यह है."सभी पापों से मुक्त रहना, चाहे वे छोटे हों या बड़े, तक़वा है / छोटे पापों को साधारण मत समझो, क्योंकि पहाड़ छोटे-छोटे पत्थरों से ही निर्मित होते है. श्रीप्रद कुरआन ने ईमान वालों से यह कहीं नहीं कहा कि तुम में श्रेष्ठ और सम्मानित वह हैं जो अधिक से अधिक नमाजें पढ़ते हैं. श्रीप्रद कुरआन की इस आयत पर विचार कीजिए - "इन्न अकरमकुम इन्दल्लाह अत्काकुम" अर्थात अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अधिक सम्मानित वह है, जो 'तक़वा' में सबसे बढ़-चढ़ कर हो, यानी जिसने कभी कोई छोटा या बड़ा पाप न किया हो और जिसका चित्त परिष्कृत हो.
अब दूसरे सोपान पर विचार कीजिए. वह है अदृश्य पर आस्था. यहाँ श्रीप्रद कुरआन ने"अल्लाह पर आस्था" तक अल्लाह के आदेश को सीमित नहीं रखा. यानी केवल अल्लाह पर आस्था पर्याप्त नहीं है. गैब (अदृश्य) पर आस्था अनिवार्य है. देखना यह है कि यह गैब पर आस्था क्या है ? गैब पर आस्था यह है कि अल्लाह पर ईमान तो हो ही, साथ-साथ श्रीप्रद कुरआन पर, प्रथम नबी हज़रत आदम (अ.) से लेकर अन्तिम नबी हज़रत मुहम्मद (स.) तक सभी नबियों पर, मलाइका (फरिश्तों) के अस्तित्व पर,क़यामत पर और आखिरत (परलोक) पर भी पूरी-पूरी आस्था हो. यही दीन और ईमान का वह मूलाधार है जिससे ज़रा भी इधर-उधर होने पर आप लाख नमाजें पढ़ें, रोजे रखें, ज़कात निकालें, हज करें, आप मुसलमान नहीं रह जायेंगे.
अब आगे उन सोपानों का उल्लेख है जिनसे ईमान लाने वाले की सात्विकता बरक़रार और सुदृढ़ रहती है. इसके लिए पहली शर्त है 'सलात' स्थापित करना.मुस्लिम धर्माचार्यों ने इसे सरलीकृत करके 'नमाज़ पढ़ना' कर दिया है.प्रश्न यह है कि 'सलात' का उद्देश्य क्या है और उसे स्थापित करना क्यों अनिवार्य है ? श्रीप्रद कुरान में विभिन्न आयातों में बताया गया है कि 'सलात' इंसान को अल्लाह के निकट लाती है, बे-हयाई और दुष्कर्मों से दूर रखती है,चित्त के परिष्कार का साधन है इत्यादि. स्पष्ट है कि 'सलात' के ये सभी गुण सात्विकता को बनाए रखने में सहयोगी हैं. नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) ने कहा है "मुझे बताओ कि यदि किसी के घर के दरवाज़े से लगी हुई एक नदी हो और वह उसमें दिन में पाँच बार स्नान करता हो, तो क्या उसके शरीर पर कहीं गन्दगी रह जायेगी ?" स्पष्ट है कि नहीं रहेगी. दिन में पाँच बार की 'सलात' यही करती है."
सात्विकता को सुरक्षित रखने का अन्तिम सोपान है अल्लाह ने जो कुछ दिया है उसमें से खर्च करते रहना. यहाँ बात केवल रूपये-पैसे, धन-दौलत की नहीं है. ज्ञान, कला, हुनर सबकुछ इसके अंतर्गत आता है. इनमें कंजूसी करने वाला अल्लाह को प्रिय नहीं है. आपके पास बेशुमार दौलत हो और आप उसमें से दरिद्रों, पीडितों मुहताजों के लिए कुछ भी खर्च न करें, आपके पास अपार ज्ञान का भंडार हो और आप उससे दूसरों को लाभान्वित न होने दें, आप कोई विशेष हुनर, शिल्प या कला ऐसी जानते हैं जिससे जनसामान्य को लाभ पहुँचता है और आप उस कला को अपने वक्ष में धरे धरे दुनिया से चले जाएँ, आपके पास अनाज के गोदाम के गोदाम भरे हैं और अकाल पड़ने पर आप यह देखते हुए भी कि लोग भूख से मर रहे हैं, उसके दाम को बहुत ऊँचा उठाकर उसे बाज़ार में लायें और लोगों की मजबूरी का लाभ उठाएं, इन स्थितियों में आप कुछ भी हो सकते हैं, मुसलमान नहीं हो सकते. इसलिए कि दीन की आत्मा आपके भीतर से गायब हो चुकी है. ज़ाहिर है कि श्रीप्रद कुरान की रोशनी में सात्विक होना बहुत सरल नहीं है. ठीक इसी प्रकार मुसलमान कहलाना बहुत सरल है, किंतु मुसलमान होना बहुत सरल नहीं है.
भारत में आज नमाज़ रोजा के पाबन्द और श्रीप्रद कुरआन तथा सुन्नत में आस्था रखने वाले मुसलामानों को सामान्य रूप से कट्टर और फंडामेंटलिस्ट कहा जाता है और उन्हें आधुनिकता विरोधी समझा जाता है. मूल रूप से यह शब्द ईसाई समाज से आया और इसे क्रिस्चियन फंडामेंटलिज़्म कहा गया. इस आन्दोलन ने ब्रिटिश और अमेरिकन प्रोटेसटेंटीज़्म के भीतर से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में सिर उभारा. यह मूलतः आधुनिकता विरोधी था. किंतु यह स्थिति मुसलामानों के साथ नहीं है. वस्तुतः मौलाना मौदूदी की इस्लामी सल्तनत की परिकल्पना और आयतुल्लाह खुमैनी के ईरानी आन्दोलन को इस्लामिक फंडामेंटलिज़्म का नाम दिया गया. जबकि मौदूदी ने हिन्दुओं के आयोजनों में शरीक होने में कभी झिझक नहीं महसूस की और आयतुल्लाह खुमैनी ने आर्मेनिअनों को जिम्मी की कोटि में न रखकर उन्हें ईरानी शहरी करार दिया और वही अधिकार दिए जो किसी ईरानी को प्राप्त हैं. अमेरिकन इतिहासकारों ने विशेष रूप से इरा लैपेडिस ने इन मुसलामानों को दो वर्गों में रखकर देखा. एक 'मेनस्ट्रीम इस्लामिस्ट' और दूसरा 'फंडामेंटलिस्ट'. उसकी दृष्टि में दोनों ही राजनीतिक धाराएं हैं. पहली धरा राजनीतिक माध्यमों को चुनती है और उसका विशवास है कि किसी समाज को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से इस्लामीकृत किया जा सकता है. दूसरी धारा भी मूलतः राजनीतिक व्यक्तियों की है किंतु वह 'मौलिक इस्लाम की खोज' के नाम पर ढेर-सारे माध्यम चुनती है और किसी भी हथकंडे को बुरा नहीं समझती, चाहे वह आतंकवाद और खून-खराबा ही क्यों न हो. यह सब स्थितियां इसलिए पैदा हुईं कि मुसलमान आहिस्ता-आहिस्ता दीन की रूह से दूर होता चला गया और उसने समय के साथ बदलते इस्लाम के स्थूल मज़हबी रूप को ही सब कुछ समझ लिया.
मुझे यहाँ हिन्दी भाषा के तीन शब्द जो बड़े ही प्रिय हैं,याद आते हैं.वे हैं अध्ययन, चिंतन और मनन. अध्ययन मनुष्य को ठोस सूचनाएं देता है, चिंतन उन्हें अनुभवों की आंच में तपाकर तरलीकृत करता है और मनन उन्हें रसायन में तब्दील करके कबीर के शब्दों में 'हरी भई बनराइ' की स्थिति पैदा कर देता है. मैं बहुत क्षमा के साथ कहना चाहूँगा कि अनेक प्रभावशाली मुस्लिम धर्माचार्यों ने दीन और ईमान को अध्ययन तक सीमित रखा. वे चिंतन और मनन की सीमाओं के भीतर या तो प्रवेश नहीं कर सके या केवल उन सीमाओं को छूकर चले आए. उसकी रूह को आत्मसात करने का प्रयास नहीं किया. मेरी दृष्टि में दीन की रूह को नबीश्री हज़रत मुहम्मद के बाद, उनकी संतानों ने, सूफी चिंतकों ने, वलियों और दरवेशों ने जिस तरह समझा, किसी धर्माचार्य ने नहीं समझा. ये वो लोग हैं जिन्होंने 'इश्के-इलाही' और 'इश्के-रसूल' में अपनी जिंदगियां ख़त्म कर दीं. अधिकतर मुस्लिम धर्मोपदेशकों ने इनके नामों को भुनाया, किंतु इनकी चारित्रिक विशेषताओं को अपने भीतर समाहित करने का प्रयास नहीं किया.
मेरी बातों से कहीं यह निष्कर्ष न निकाल लिया जाय कि मैं शरीअत-विरोधी हूँ. मैं शरीअत का उतना ही सम्मान करता हूँ जितना एक मुसलमान को करना चाहिए. हाँ शरीअत को मैं दीन और ईमान के शरीर की रीढ़ की हड्डी मानने के पक्ष में नहीं हूँ. मैं शरीअत को दीन का व्याकरण समझता हूँ. जिस प्रकार भाषा पर अधिकार हो जाने पर व्याकरण का महत्त्व गौण हो जाता है उसी प्रकार इश्के-रसूल और इश्के-इलाही की भाषा को मन, मस्तिष्क और व्यवहार में गहराई तक उतार लेने पर शरीयत का व्याकरण तमाम विवादों से ऊपर उठकर उसी के अनुरूप हो जाता है.
मैं अपने उपर्युक्त विचारों के पक्ष में केवल दो उदाहरण देना चाहूँगा. पहला उदाहरण श्रद्धास्पद हज़रत उवैस करनी (र.) का है. प्रत्येक मुसलमान जानता है कि हज़रत उवैस करनी (र.) नबीश्री के प्रतिष्ठित और सम्मानित सहाबियों में से थे. वो उहद के गज़वे में शरीक नहीं हो सके थे. उन्हें जब यह सूचना मिली कि जंग में नबीश्री के दांत शहीद हो गए तो इश्के-रसूल की मौजों ने ज़ोर मारा और उन्होंने एक पत्थर मारकर अपने सारे दांत तोड़ लिए. अब शरीअत लाख चिल्लाती रहे कि शरीर के किसी अवयव को चोट पहुंचाना, काटना, तोड़ना, शरीर से अलग करना हराम कार्य है. किंतु किसी आलिम में यह साहस नहीं है कि वह हज़रत उवैस करनी (र.) के इस कृत्य को हराम कृत्य कह सके. उल्टे यह और हुआ कि वे नबीश्री की दृष्टि में और भी अधिक सम्मानित हो गए.
दूसरा उदाहरण मस्जिदे-नबवी में नबीश्री के सहाबियों के घरों के जो दरवाज़े खुलते थे,उन्हें इमाम अली (र.) के दरवाज़े को छोड़ कर, बंद करने के आदेश का है. कुछ मुस्लिम धर्माचार्यों ने इस हदीस को कमज़ोर बताने का प्रयास किया है. किंतु इस्लाम की प्रामाणिक समझी जाने वाली इतनी अधिक पुस्तकों में यह संदर्भित है कि इससे इनकार करना असंभव प्रतीत होता है. इन प्रामाणिक पुस्तकों में निसाई, बहेक़ी, तबरानी, और तिरमिज़ी के नाम विशेष उल्लेख्य हैं. थोड़े से परिवर्तन के साथ बुखारी शरीफ में भी यह हदीस मौजूद है. किंतु अनेक अकाट्य तर्कों के आधार पर मुस्लिम विद्वानों ने इसे विश्वसनीय नहीं माना है. हुआ ये कि मस्जिद में बहुत से साहबियों के दरवाज़े खुलते थे और रात में अनेक सहाबी वहीं सोते भी थे जिससे मस्जिद की पवित्रता प्रभावित होती थी. उस समय नबीश्री ने आदेश दिया कि इमाम हज़रत अली (र.) के अतिरिक्त सभी सहाबी अपने दरवाज़े बंद कर लें. हज़रत अली (र.) को यह भी अनुमति दी गई कि वे ज़ाहिरा अपवित्रता की स्थिति में भी मस्जिद में आ-जा सकते हैं. इस आदेश का सहाबियों ने बहुत बुरा माना. श्रीप्रद कुरान की 'सूरह वन्नज्म' से ऐसा संकेत मिलाता है कि कुछ सहाबियों ने नबीश्री को गुमराह भी कह दिया. मैं विस्तार में नहीं जाना चाहता. प्रश्न यह है कि अपवित्रता की स्थिति में शरीअत मस्जिद में प्रवेश को वर्जित मानती है. फिर स्वयं नबीश्री ने यह अनुमति किस प्रकार दे दी ? अब या तो यह मान लीजये कि सूरह 'अहज़ाब' की 'आयते-ततहीर' के प्रकाश में अल्लाह 'अह्लेबैते-अतहार' को जिनमें हज़रत अली (र.) भी सम्मिलित थे, हर स्थिति में पवित्र रखने का संकल्प कर चुका था. इस दृष्टि से हज़रत अली (र.) हर स्थिति में पवित्र थे या फिर यह कहिये कि अल्लाह के कुछ बन्दे ऐसे हैं जो इश्के-इलाही में इस प्रकार रमे हुए हैं कि जैसे बहते दरिया को नालों की गन्दगी अपवित्र नहीं करती उसी प्रकार वे भी अपवित्र नहीं होते. कहने का अभिप्राय यह है कि इश्के इलाही के सामने शरीअत के पैमाने छोटे पड़ जाते हैं. दीन के सभी अरकान अल्लाह से नैकट्य (फी कुर्बतन इलल्लाह) की नीयत से हैं. फिर जो इश्के-इलाही में पूरी तरह रम गया हो वह तक़वा के किस दर्जे पर होगा इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है.
ध्यान देने की बात यह है कि दीन की आत्मा है ईमान और ईमान का नाभीय बिन्दु है इश्के-इलाही और इश्के-रसूल. और यह इश्क, अल्लाह और उसके रसूल की मारिफत (वास्तविक पहचान) के बिना सम्भव नहीं है. ऐसी स्थिति में हर सहाबी और हर मुसलमान का ईमान बराबर किस प्रकार हो सकता है. मुस्लिम धर्माचार्य इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि ईमान के भी दर्जे होते हैं. नाबीश्री (स.) ने अपने सहाबियों के मध्य स्पष्ट शब्दों में घोषित कर दिया था कि ईमान के दस दर्जे होते हैं, उनमें से आठवें दर्जे पर हज़रत मिक़दाद (र.), नवें पर हज़रत अबूज़र गिफ़ारी (र.) और दसवें दर्जे पर हज़रत सलमान फ़ारसी प्रतिष्ठित थे. इतना ही नहीं नबीश्री की यह भी हदीस है कि "इन्नल्जन्नत तश्ताक इला सलास सलमान व् अबी ज़र व् मिक़दाद" अर्थात तीन विभूतियाँ वह हैं जिनकी जन्नत मुश्ताक है, वे हैं सलमान (र.), अबूज़र (र.) और मिक़दाद.
यह बातें साधारण और निम्नस्तरीय पुस्तकों में नहीं हैं. सहाबियों की जिंदगी पर जितनी भी स्तरीय पुस्तकें लिखी गई हैं, उन सब में हैं. इनका सबसे अधिक प्राचीन स्रोत अल्लामा इब्ने अब्दुल्बर की पुस्तक 'इस्तेआब फी मारिफत-अल-असहाब' है. इसके बाद हाफिज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी की पुस्तक 'असाबा फी तमीज-अल-सहाबा' है. कोई भी मुस्लिम धर्माचार्य इन पुस्तकों पर प्रश्न-चिह्न नहीं लगा सकता. किंतु समय के साथ इस्लामी राजनीति ने नबीश्री के इन प्रतिष्ठित सहाबियों को इतिहास के मलबे में दबा दिया. केवल इसलिए कि यह विभूतियाँ जिस इस्लाम को प्रतीकायित करती थीं वह मुस्लिम धर्माचार्यों के राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा नहीं करता. आज मुस्लिम आबादी के तीन-चौथाई से अधिक लोग ऐसे हैं जो हज़रत सलमान (र.), हज़रत अबूज़र (र.) और हज़रत मिक़दाद (र.) के नाम भी नहीं जानते. यह स्थिति इसलिए भी है कि युवा पीढी को इनसे परिचित कराने में एक खतरा यह है कि राजनीतिक उद्देश्यों से जिन सहाबियों के मनोनुकूल रेखाचित्र बना लिए गए हैं, कहीं वे धूमिल न पड़ जाएँ. मज़हब यही करता भी है.
**********************क्रमशः

बुधवार, 9 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.2

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दीन शब्द को सामान्यीकृत करके धर्म या मज़हब के साथ एकस्वर करना चिंतन के सारे दरवाज़ों को बंद करना है. मनुष्य चाहता भी यही है. बाप-दादा के मज़हब पर रहने में ही भलाई है. चिंतन की आज़ादी देने से बाप-दादा के मज़हब को खतरा हो सकता है. चिंतन का सम्बन्ध अक्ल से है और अक्ल अच्छे-बुरे की पहचान कराती है. इसलिए अक्ल की खिड़कियाँ अगर बंद कर दी जाएँ तो अच्छाई-बुराई की परख की संभावनाएं भी समाप्त हो जायेंगी. और बस, बाप-दादा जिस धर्म का पालन करते आए हैं, उसी पर चलते रहो, कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत ही क्या है की स्थिति पैदा हो जायेगी. नबीश्री ने जब मक्के के मुशरिकों को दीन की ओर बुलाया तो उनके सामने यही समस्या थी. बाप-दादा से चले आ रहे धर्म को छोड़ना उनके लिए असंभव सा प्रतीत होता था. श्रीप्रद कुरआन ने उनके समक्ष महत्त्वपूर्ण प्रश्न रखा -"क्या अपने पूर्वजों के रास्ते पर ही चलते जाओगे चाहे उन्होंने अक्ल से काम न लिया हो ?" स्पष्ट है कि अपने लिए दीन को चुनना अक्ल का काम है. मुसलामानों ने भी आगे चलकर जब वह विभिन्न सम्प्रदायों में बँट गए, ऐसा ही किया. इस्लामी शरीअताचार्यों ने अपने-अपने मस्लकों के क़िले निर्मित कर लिए और दूसरे मस्लकों के लिए आक्रामक रुख अख्तियार किया. मज़हब का स्वभाव ही यही है. अल्लामा इकबाल लाख कहते रहें -'मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना' किंतु सच्चाई यही है कि मज़हब इसके अतिरिक्त और कुछ सिखाता ही नहीं. हाँ 'आपस' शब्द का अर्थ यदि एक मज़हब मानने वालों के बीच आपसी रिश्ते से है, तो इकबाल बिकुल ठीक कहते हैं. एक मसलक, एक सम्प्रदाय, एक मज़हब, एक धर्म के लोग तो आपस में मिल-जुल कर रहेंगे ही. दीन की स्थिति इस से भिन्न है. वह मज़हब, मसलक या धर्म की तरह छोटे-छोटे दायरे नहीं बनाता. वह परम सत्ता की अहदीयत (विशिष्टता) और वाहिदीयत (एकत्त्व) को मध्य का बिन्दु स्वीकार करते हुए ऐसा वृत्त बनाता है कि केन्द्रीय बिन्दु अर्थात परम सत्ता की विशिष्टता और उसके एकत्त्व की ओर, वृत्त की किसी दिशा से चलने वाला बराबर का फासला तय करता है और मध्य के बिन्दु पर आकर बिना किसी भेद-भाव के एक हो जाता है. ध्यान देने की बात यह है कि वृत्त का केन्द्रीय बिन्दु होते हुए भी वह अदृश्य रहता है. अब यदि कोई केन्द्र बिन्दु को किसी एक दिशा में थोड़ा इधर उधर खिसका दे और वृत्त को यथास्थान रहने दे. फिर यह समझ ले कि वह केन्द्रीय बिन्दु से अधिक निकट है तो यह उसका मात्र भ्रम होगा. कारण यह है कि हर केन्द्र-बिन्दु अपना एक अलग वृत्त बनाता है. एक ही वृत्त के कई केन्द्र-बिन्दु नहीं हो सकते. बात कड़वी अवश्य है किंतु मुस्लिम आचार्यों ने ऐसा ही किया.
मज़हब या धर्म का छोटे-छोटे दायरों में सिमटा होना ही उनके पारस्परिक वैमनस्य का कारण बनता है. किसी मज़हब को स्वीकार करना या न करना मनुष्य के अधिकार में है. किंतु जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जहाँ यह मनुष्य यह जानने को उत्सुक रहता है कि इलाज के लिए कौन डाक्टर अच्छा होगा, मुक़द्दमे के लिय किस वकील को करना ठीक है, शिक्षा के लिए किस संस्था को चुना जाय, वहीं लोक और परलोक के सन्दर्भ में एक क्षण को भी यह सोचना-विचारना नहीं चाहता कि इस दिशा में जीवन का प्रकाश कहाँ से प्राप्त किया जाय. निर्धन, विपन्न, अशिक्षित, पिछडे समाज की बात और है. उसके पास कोई विकल्प नहीं होता. किंतु जो स्वयं को बुद्धिजीवी समझते और मानते हैं, वे परम्परा की लीक क्यों पीटते हैं, क्यों पैतृक धर्म का पालन करते हुए अक्ल की खिड़कियाँ दरवाज़े बंद रखते हैं, यह विचारणीय अवश्य है. मृग-मरीचिका को पानी समझ कर उसके लिए दौड़ते चले जाना बद-अक़ली नहीं है तो और क्या है !
वह धर्म, मज़हब, मसलक, पंथ या सम्प्रदाय जो मानव जाति को टुकडों में बांटता हो, और कुछ भले ही हो, सत्य नहीं हो सकता, और इस आधार पर दीन की परिधियों में भी उसे नहीं रख जा सकता, इतना निश्चित है. ठहरा और रुका हुआ पानी किसी धर्म और मज़हब में शुद्ध नहीं माना जाता. फिर चिंतन का गतिशील और प्रवाहमय न होना और उसे मज़हब और धर्म के सीमित ट्रेडमार्क में सील कर देना किस प्रकार उचित ठहराया जा सकता है. मज़हब के नाम पर जितनी जंगें होती हैं, जितने दंगे- फ़साद होते है, जितना रक्त बहाया जाता है वह किसी से ढका-छुपा नहीं है. उसका मूल कारण यह है कि जहाँ दीन अपने मूल में आध्यात्मिक है, वहीं मज़हब का आधार बाह्याचार और कर्मकांड हैं. और मजहबों की बात जाने दीजिय, मुसलमान विभिन्न मस्लकों में केवल इसलिए बँटे हैं कि शरीयत-प्रदत्त बाह्याचार ही उनकी मज़हबी सोच का मूलाधार हैं. शरीयत का मूल उद्देश्य है दीन की आत्मा को सुरक्षित रखना और दीन में आस्था रखने वालों को उसके अनुरूप देखना. स्थिति यह है कि कौन नमाज़ कैसे पढता है, वजू किस प्रकार करता है, रोजा कब खोलता है, किसकी कौन सी मस्जिद है, दाढी रखता है या नहीं, रखता है तो उसका साइज़ क्या है, पाजामे के टखने खुले रखता है या ढके हुए, अजादारी और ताजियेदारी क्यों करता है, काफिरों के साथ उसका क्या सुलूक है, खलीफाओं को किस रूप में स्वीकार करता है, हदीसों को कितना महत्त्व देता है, यदि महत्त्व देता है तो किन हदीसों को प्रामाणिक मानता है, श्रीपद कुरआन की तिलावत करता है या नहीं, अगर करता है तो उसका शीन-काफ दुरुस्त है या नहीं, जैसी ढेर सारी छोटी-छोटी बातों में उलझा हुआ शरीयताचार्यों का समूह आज इस्लाम की पहचान बन कर रह गया है.
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इस्लाम शब्द 'सिल्म' से बना है जिसका अर्थ होता है गर्दन झुकाना. इस्लाम का अर्थ है अपना सब कुछ परम सत्ता को समर्पित कर देना. समर्पण के लिए अंग्रेज़ी में दो शब्द हैं. एक है सरेंडर और दूसरा है सबमिशन. सरेंडर किसी विवशता या दबाव के नतीजे में होता है जबकि सबमिशन अपनी खुशी से किया जाता है. इस्लाम किसी दबाव या ज़ोर-ज़बरदस्ती की बात नहीं करता. वह चाहता है कि अल्लाह के बन्दे अपनी खुशी से ख़ुद को अल्लाह के सुपुर्द करें. श्रीप्रद कुरआन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है "ला इक्राहि फिद्दीन" दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है. दीन जिस ख़ुद सुपुर्दगी या सबमिशन की बात करता है वह वस्तुतः लघु से विराट की ओर बढाया गया एक क़दम है. पानी की बूँद कितनी ही लघु क्यों न हो जब वह दरया को समर्पित हो जाती है तो उसका अस्तित्त्व समाप्त नहीं होता, हाँ दरिया की विराटता के साथ जुड़कर वह स्वयं भी विराट हो जाती है. अब जो लोग उसकी लघुता तलाश करना चाहते हैं उन्हें वह दिखायी नहीं देती.
नबीश्री की जिंदगी में भी जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनमें दो प्रकार के लोग थे. एक तो वे थे जिन्होंने अपनी खुशी से इस्लाम स्वीकार किया था. दूसरे वे थे जिनके समक्ष कोई विकल्प नहीं रह गया था. मक्का विजय के बाद जो लोग मुसलमान हुए उनमें से अधिकतर निश्चय ही दूसरी श्रेणी के थे. यह लोग संभ्रांत, संपन्न और शक्तिशाली थे. परिणाम यह हुआ कि नबीश्री के निधनोपरांत, कुछ ही वर्षों के भीतर, इस्लाम की व्याख्या राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली और शक्ति-संपन्न समुदाय के हाथ में आ गई.
मुसलामानों ने सामान्य रूप से आतंरिक सत्य (दाखिली हक़ायक़) के बजाय बाह्य सत्य (खारजी हक़ायक़) को चुना. नबीश्री दाढी कैसी रखते थे, सिर के बालों की क्या स्थिति थी, आंखों में कैसा सुरमा लगाते थे, खिजाब किस तरह करते थे जैसी बातों पर ही मुसलामानों की दृष्टि केंद्रित थी. इस तथ्य पर बहुत कम विचार किया गया कि उनका अखलाक कैसा था, काफ़िरों और मुशरिकों के साथ उनका क्या बर्ताव था, मित्रों को किस रूप में बरतते थे, पति, पिता, भतीजे और भांजे के रूप में वे कैसे थे, उन्होंने किसके साथ नेकियाँ कीं, किसके लिए गज़बनाक हुए, किसको आत्मीय भाव से पास बिठाया, किसे अपनी गोष्ठी से हटा दिया, सिर पर पत्थर पड़े और लहू-लुहान हो गए तो गुस्सा क्यों नहीं किया, उल्टे अत्याचार करने वालों के लिए दुआएं कीं कि वे उन्हें पहचानते नहीं, अल्लाह उन्हें समझ अता करे. मुसलामानों ने इन तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी, यह एक विचारणीय प्रश्न है. किंतु इतना तो निश्चित है कि यही बातें दीन को मज़हब में तब्दील करती चली गयीं.
दुखद स्थिति यह है कि प्रारम्भ से ही मुसलामानों की दृष्टि बाह्य-सत्य (खारजी हक़ायक़) पर केंद्रित रही. नबीश्री (स.) ने अज़ान के लिए जब श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) को मनोनीत किया तो कुछ मुसलामानों को यह बात पसंद नहीं आई. एक कारण तो यह था कि श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) हबश के रहने वाले थे और काले थे.दूसरा यह कि उनका उच्चारण भी अरबों के उच्चारण से पर्याप्त भिन्न था. वह 'श' को 'स' उच्चारित करते थे. पहली बात पर तो आपत्ति इसलिए नहीं कर सके कि उन्होंने नबीश्री (स.) से बार-बार सुन रखा था कि इस्लाम गोरे और काले में कोई भेद नहीं करता. अब सोचा कि आपत्ति यदि दूसरी बात को लेकर की जाय तो नबीश्री (स.) उसे निश्चय ही स्वीकार कर लेंगे. कुछ सहाबी नबीश्री की सेवा में उपस्थित हुए और बड़े विनम्र भाव से बोले. "हमें दुःख है, आपने बिलाल को मुवज़्ज़िन बना दिया !" नबीश्री (स.) ने पूछा "तो इसमें क्या बुराई है ?" उसी विनम्रता से बोले " हुज़ूर वह तो 'शीन' साफ़ नहीं कहते. 'अश्हदुअन्न' को 'अस्हदुअन्न' कहते हैं." नबीश्री (स.) ने उत्तर दिया "सीनु बिलालिन शीनुन इन्दल्लाह" यानी "बिलाल का सीन अल्लाह के निकट शीन है." गोया नबीश्री ने संकेत कर दिया कि इस्लाम नीयत देखता है उच्चारण नहीं, अंतरात्मा देखता है बाह्याचार नहीं.
अल्लाहु-अकबर का नारा मुसलामानों के लिए नारए-तकबीर है और इसे सामान्य मुसलमान इस्लामी संस्कृति से जोड़ कर देखता है. वैसे तो संस्कृति हिंदू मुसलमान या ईसाई नहीं होती. वह मूल रूप से भौगोलिक चौहद्दियों से नियंत्रित होती है. फिर भी यदि इसे इस्लामिक कल्चर का हिस्सा मान भी लिया जाय, तो यह इस्लामिक कल्चर उस समय होगा जब इसका सही प्रयोजन हो. उद्देश्य का सही होना अनिवार्य होगा. यदि बेगुनाहों के घर जलाने में अल्लाहु-अकबर के नारे लगाए जाएँ तो निश्चित रूप से उसका इस्लाम से कोई सम्बन्ध न होगा. नाबीश्री (स.) के नवासे हज़रत इमाम हुसैन (र.) को जिन लोगों ने शहीद किया वह भी अल्लाहु अकबर के नारे लगा रहे थे. क्या यह भी इस्लामी कल्चर है ? एक अरबी शायर ने इस अवसर के लिए कहा था-" वयुकब्बिरून बि'अन्कुतिल्त व् इन्नमा / क़तलू ब'क अत्तक्बीरा व् तहलीला." अर्थात अरे ! ये आपको क़त्ल करके तकबीर के नारे लगा रहे हैं. हालांकि सत्य यह है कि ये आपके साथ तक्बीरो-तहलील के गले पर छुरी चला रहे हैं. आज भी दंगे-फ़साद और आतंकवादी घटनाओं के अवसर पर 'अल्लाहु-अकबर' के नारे लगाकर वास्तव में "तकबीर" (परम सत्ता के सर्व-शक्तिमान होने की घोषणा) के गले पर छुरी चलाई जा रही है. वस्तुतः किसी भी कृत्य को उस समय तक इस्लाम से नहीं जोड़ा जा सकता जब तक उसका उद्देश्य इस्लाम के स्वभाव के अनुरूप न हो. आज अल्लाहु-अकबर के नारे से दीन की आत्मा पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है और उसका स्थान मज़हब और सियासत ने ले लिया है. हिन्दुओं में 'हर हर महादेव' की भी यही स्थिति है. इन नारों के माध्यम से अल्लाह की श्रेष्ठता घोषित करना अभीष्ट नहीं होता. अभीष्ट होता है अपने गुट या समुदाय का वर्चस्व घोषित करना.यहाँ मुझे 1980 में लिखी गई अपनी एक ग़ज़ल के दो शेर याद आ गए -"हम तो बस रोशनी साथ लेकर चले / क्या खता थी हमारी कि पत्थर चले" और "निकले 'हर हर महादेव' घर फूंकने / जान लेने को "अल्लाहु अकबर" चले" कदाचित इसीलिए इस्लाम सियासत की तालीम नहीं देता. वह हिकमत ( दीन की सीमाओं में रहते हुए समय और परिस्थितियों की नब्ज़ को पहचानना) पर बल देता है. सियासत भी अरबी शब्द है किंतु मेरी जानकारी में श्रीप्रद कुरआन में इस शब्द का कहीं प्रयोग नहीं हुआ है. जबकि सच्चाई यह है कि मुस्लिम धर्माचार्यों द्बारा इस्लामी-सियासत शब्द का खूब-खूब प्रयोग होता है. मज़हब में सियासत के लिए भले ही जगह हो, दीन में सियासत के लिए कोई जगह नहीं होती.
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सोमवार, 7 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.1

परिचयात्मक टिप्पणी

इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रो. शैलेश ज़ैदी के इस्लाम सम्बन्धी विचार इस उद्देश्य से प्रस्तुत किये जा रहे हैं कि इस्लाम को लेकर अनेक ऐसी बातें प्रचलित हैं जिनका वास्तविक इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है. प्रो. ज़ैदी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अरबी, फ़ारसी आदि अनेक भाषाओँ के ज्ञाता हैं और श्रीप्रद कुरान पर अच्छी दृष्टि रखते हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष और आर्ट्स फैकल्टी के डीन रह चुके हैं. नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) के पावन चरित्र पर उनकी काव्य-पुस्तक "असासए-इस्लाम" पर्याप्त चर्चित हो चुकी है. फिर भी यह स्तम्भ खुला मंच है. सार्थक, तर्कयुक्त और स्तरीय विचारों का स्वागत किया जायेगा और इस कृति-पुंज (ब्लॉग) पर उचित स्थान दिया जायेगा. [प. फ़ा.]

इस्लाम 'दीन' है, धर्म या मज़हब नहीं

सामान्य रूप से मुसलमान इस्लाम को मज़हब समझते हैं. मज़हब अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ रास्ता, आस्था, पंथ, मत इत्यादि होता है. सम्पूर्ण कुर'आन मजीद में 'मज़हब' शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है. होता भी कैसे. जब इस्लाम मज़हब था ही नहीं तो इस शब्द का प्रयोग क्यों होता.? श्रीप्रद कुर'आन को समझने के लिए अरबी भाषा का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है. यदि ऐसा होता तो अरबों के बीच श्रीप्रद कुर'आन में यह आयत किसी स्थिति में अवतरित न होती -"ये कुर'आन में गौर क्यों नहीं करते, क्या इनके दिलों पर ताले लगे हुए हैं ? गौर करना अक्ल या विवेक का काम है. जो अक्ल या विवेक के दरवाज़े बंद कर देता है वह श्रीप्रद कुर'आन को नहीं समझ सकता. मुसलामानों का बड़ा वर्ग 'अक्ल' में विशवास नहीं रखता. वह ज़हानत (बौद्धिकता) और अक्ल को एक समझता है और उसका ख़याल है कि अक्ल मनुष्य को गुमराह कर सकती है. वह यह नहीं समझना चाहता कि नीर-क्षीर विवेक का नाम है अक्ल. अक्ल वह है जो इंसान को अच्छे-बुरे की तमीज सिखाती है. जबकि ज़हानत इंसान को अच्छाई और बुराई दोनों दिशाओं में ले जा सकती है.
श्रीप्रद कुर'आन में 'अक्ल' के पक्ष में बयालीस आयतें उपलब्ध हैं. मुसलमान इन आयातों पर विचार नहीं करना चाहता. उर्दू भाषा में दो शब्द प्रचलित हैं. एक ऐन से लिखा जाने वाला अक़लीयत शब्द जिसका अर्थ है विवेकशीलता और दूसरा अलिफ़ से लिखा जाने वाला अक़लीयत शब्द जिसका अर्थ है अल्पसंख्यक. भारत में मुसलमान शरीअताचार्यों के लिए दूसरा शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है. पहले शब्द से उन्हें शरी'अत-विरोधी होने की गंध आती है. ऐसी स्थिति में श्रीप्रद कुर'आन कुछ भी कहता हो इस्लाम को मज़हब मान लेने से उनके स्वनिर्मित सम्प्रदायों की रक्षा होती है. यदि वे इस्लाम को दीन मानते तो विभिन्न सम्प्रदायों में न बंटते. कारण यह है कि दीन दो चार दस नहीं होता जब कि मज़हब या मसलक सैकड़ों हो सकते हैं.
श्रीप्रद कुर'आन ने जिस प्रकार 'ला इलाह, इल्लल्लाह' ( नहीं है कोई परम सत्ता सिवाय अल्ल्लाह के) के माध्यम से परम सत्ता के एकत्त्व का बीज-बिन्दु स्थिर किया, उसी प्रकार 'इन्नद-दीन इन्दल्लाहिल-इस्लाम' (परम सत्ता के निकट यदि कोई दीन है तो वह इस्लाम है) के माध्यम से आस्था के एकत्व का बीज-बिन्दु भी स्थिर किया. श्रीप्रद कुर'आन ने इस आस्था को ही सर्वत्र विशेष महत्त्व दिया है. ध्यान से देखना चाहिए कि श्रीप्रद कुर'आन में कहीं भी मुसलामानों को संबोधित नहीं किया गया. जहाँ भी संबोधित किया गया है ईमान वालों को संबोधित किया गया है. स्पष्ट है कि मुसलमान होना सही अर्थों में ईमान वाला होने का पर्याय नहीं है. इस्लाम के अन्तिम नबी हज़रत मुहम्मद (स.) का कृपाशील व्यक्तित्व भी केवल मुसलामानों के लिए नहीं, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए है. उन्हें "रह्मतुल्मुस्लिमीन" नहीं, 'रहमतुल-आलमीन" कहा गया है.
नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) ने मक्का के मुशरिकों का ध्यान आस्था के जिस बीज-बिन्दु की ओर आकृष्ट किया वह परम सत्ता के एकत्त्व का बीज-बिन्दु था. उन्होंने यह नहीं कहा कि "कूलू मुहम्मदुन रसूलल्लाह" अर्थात कहो कि मुहम्मद (स.) अल्लाह के रसूल हैं. उन्होंने सदैव यही फरमाया कि "कूलू ला-इलाह-इल्लल्लाह तुफ़्लहू" अर्थात कहो कि नहीं है कोई परम सत्ता सिवाय अल्लाह के, तुम्हारी भलाई होगी. इस 'कहो' का यह अर्थ हरगिज़ नहीं है कि किसी समय खड़े होकर नारा लगा लो. यदि अरबों को आस्था का यह बीज-बिन्दु दिया जाता कि "अल्लाहु इलाहुन" अर्थात अल्लाह उपास्य है, तो पूरा अरब बिना किसी आपत्ति के इसे स्वीकार कर लेता. कारण यह है कि अल्लाह को तो वे पहले से मानते थे. किंतु दुशवारी यह थी कि अल्लाह से इतर भी बहुतों को उपास्य मानते थे. सच्चाई यह है कि अरब के मुशरिकों को अल्लाह को मानने में आपत्ति नहीं थी, उन्हें अल्लाह को एकमात्र परम सत्ता मानने में आपत्ति थी. इस्लाम की विशेषता यह है कि उसने बहुत से खुदाओं को एक कर दिया( अजअललअलिहत इलाहौं वाहिदन ).
दीन शब्द का अर्थ शब्दकोशों में तलाश करना पर्याप्त भ्रामक हो सकता है. जो लोग श्रीप्रद कुरआन को आसमानी ग्रन्थ मानते हैं उन्हें मनुष्य के बनाए हुए शब्दकोशों में भटकने के बजाय श्रीप्रद कुरआन में ही इस शब्द का अर्थ खोजना चाहिए. ध्यान देने की बात यह है कि अल्लाह की प्रशस्ति और प्रशंसा के बाद सूरह फातिहा में सबसे पहले जिस शब्द से परिचित कराया गया वह दीन शब्द है - "मालिकि-यौमिद्दीन" अर्थात न्याय के दिन का स्वामी. श्रीप्रद कुरआन के कुछ व्याख्याता और अनुवादक इसका अर्थ 'इन्साफ के दिन का मालिक' भी करते हैं. किंतु इन्साफ करने वाला मुंसिफ कहलाता है और अल्लाह के नामों में उसका कोई नाम मुंसिफ नहीं है. इन्साफ बराबर से आधा-आधा (निस्फ़-निस्फ) कर देने को कहते हैं. इन्साफ बाह्य सुबूतों के आधार पर किया जाता है. अल्लाह अन्तर्यामी है और उसे किसी बाह्य सुबूत की अपेक्षा नहीं है . इसीलिए वह 'आदिल' है मुंसिफ नहीं. अनुवाद अद्ल के दिन का मालिक किया जाना चाहिए. स्पष्ट है कि श्रीप्रद कुरआन ने दीन का अर्थ बताया न्याय, अद्ल, जस्टिस. मज़हब या धर्म इस अर्थ का संकेत नहीं करते. श्रीप्रद कुरआन की दृष्टि में दीन वह है जो मनुष्य को सत्य और असत्य के बीच निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है. श्रीप्रद कुरआन ने भी अपना परिचय इसी ढंग से कराया है -"बैयिनातिम -मिनल्हुदा वल्फुर्कान" अर्थात जो सत्य और असत्य के मध्य विभाजक रेखा खींचता हो. अर्थात न्यायशील हो. अभिप्राय यह है कि जो श्रीपद कुरआन है वही दीन है.
आज दीन और मज़हब एक दूसरे के समानार्थक हो गए हैं. किंतु यह दीन शब्द को सरलीकृत करके उसकी आत्मा को ठेस पहुंचाना है. दीन सम्पूर्ण जनमानस के लिए परमसत्ता का एक अदभुत वरदान है जबकि मज़हब मनुष्य की बुद्धि की उपज है. जिन लोगों की दृष्टि में दीन परमसत्ता के एकत्व का परिचायक है वो इस्लाम का प्रारंभ नबीश्री हज़रत आदम से करते हैं और इस्लाम को अनादि और अनंत मानते हैं. किंतु जिनके अवचेतन में इस्लाम एक मज़हब है वो इसे कुल चौदह सौ वर्षों की चौहद्दियों में बंद कर देते हैं.
श्रीप्रद कुरआन के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सच्चे दीन की नक़्ल में बहुत से दीन बना लिए गए. किंतु सच्चा दीन एक ही है. मजहबों का एक जैसा दिखायी देना उनका एक होना नहीं है. दीन के नाम से जो इमीटेशन तैयार किये गए उन्हें श्रीप्रद कुरआन "अहवा" शब्द से याद करता है. अर्थात वासना या स्वार्थवश जन्मी इच्छाएं . रास्ते बहुत से हो सकते हैं किंतु हर रास्ता "सिराते-मुस्तकीम" अर्थात सीधा-सच्चा रास्ता नहीं हो सकता.
संसार के जितने भी मज़हब हैं उनका सम्बन्ध या तो किसी व्यक्ति विशेष से है या किसी भूभाग से. उदाहरण के तौर पर ईसाई कहने पर इस मज़हब का सम्बन्ध नबीश्री हज़रत ईसा से जुड़ता है. यहूदी मज़हब का सम्बन्ध नाबिश्री हज़रत याकूब के बेटे 'यहूदा' से है. यदि आप उन्हें इस्राईली कहें तो 'इस्राईल' स्वयं हज़रत याकूब की उपाधि है. बौद्ध मज़हब की निस्बत हज़रत महात्मा बुद्ध से है. पारसी मज़हब का सम्बन्ध फारस की धरती से है. हिंदू मज़हब हिंद की धरती से जुड़ा है. स्पष्ट है कि जब मज़हब का सम्बन्ध किसी व्यक्ति या धरती के भूभाग से होगा तो चूंकि उसकी निस्बत सीमित है इसलिए मज़हब भी सीमित ही होगा. इस्लाम की निस्बत न किसी व्यक्तित्व से है न किसी धरती से. वह हाशमी नहीं है, हिजाज़ी नहीं है, मुहम्मदी नहीं है. कुछ लोगों ने उसे दूसरे मजहबों कि नक़्ल में मुहम्मडन कहने का प्रयास किया. किंतु इस्लाम के अन्तिम नबी (स.) ने कभी यह नहीं कहा कि यह मेरा दीन है, मैं इसका प्रवर्तक हूँ. नबी श्री हज़रत मुहम्मद (स.) इस्लाम के व्याख्याता, अन्तिम नबी और रसूल हैं, प्रवर्तक नहीं.
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