ग़ज़ल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं / अख्तर शीरानी

काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं तो क्या करें
उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें
अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें
*************************

ग़मों का बोझ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

ग़मों का बोझ है दिल पर, उठाता रहता हूँ
मैं राख ख़्वाबों की अक्सर उठाता रहता हूँ
ज़मीं पे बिखरी हैं कितनी हकीक़तें हर सू
उन्हें समझ के मैं गौहर उठाता रहता हूँ
उसे ख़याल न हो कैसे मेरी उल्फ़त का
मैं नाज़ उसके, बराबर उठाता रहता हूँ
शिकायतें मेरे हमराहियों को हैं मुझ से
गिरे-पड़ों को मैं क्योंकर उठाता रहता हूँ
ये जिस्म मिटटी का छोटा सा एक कूज़ा है
मैं इस में सारा समंदर उठाता रहता हूँ
मैं संगबारियों की ज़द में जब भी आता हूँ
मैं संगबारी के पत्थर उठाता रहता हूँ
ये जान कर भी कि हक़-गोई तल्ख़ होती है
नकाब चेहरों से 'जाफ़र' उठाता रहता हूँ
**************************

हवाएं गर्म बहोत हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

हवाएं गर्म बहोत हैं कोई गिला न करो
है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
***********************

नहीं चाहता है / इरफ़ान सिद्दीक़ी

शोलए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.
*******************

समझा नहीं मुझे / उस्मान असलम

वो शख्स पास रह के भी समझा नहीं मुझे
इस बात का मलाल है, शिकवा नहीं मुझे
मैं उसको बे-वफ़ाई का इल्ज़ाम कैसे दूँ
उसने तो इब्तिदा से ही चाहा नहीं मुझे
क्या-क्या उमीदें बाँध के आया था सामने
उसने तो आँख भर के भी देखा नहीं मुझे
पत्थर समझ के पाँव की ठोकर पे रख दिया
अफ़सोस उसकी आँख ने परखा नहीं मुझे
मैं कब गया था सोच के ठहरूंगा उसके पास
अच्छा हुआ कि उसने भी रोका नहीं मुझे
************************

बुधवार, 20 अगस्त 2008

ताज़ा ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[1]
शिकवए-गर्दिशे-हालात सभी करते हैं
ज़िन्दगी तुझसे सवालात सभी करते हैं.
सामने आते हैं जब करते हैं तारीफ़ मेरी
मसलेहत से ये इनायात सभी करते हैं
हक के इज़हार में होता है तकल्लुफ सब को
वैसे आपस में शिकायात सभी करते हैं
उस से मिलते हैं तो खामोश से हो जाते हैं
उस से मिलने की मगर बात सभी करते हैं
कह दिया उसने अगर कुछ तो है खफगी कैसी
ऐसी बातें यहाँ दिन रात सभी करते हैं
हर कोई फिरका-परस्ती में मुलव्विस तो नहीं
कैसे कह दूँ कि फ़सादात सभी करते हैं
तुमने 'जाफ़र' उसे चाहा तो बुराई क्या है
हुस्न की उसके मुनाजात सभी करते हैं
[2]
इतनी वीरान मेरे दिल की ये धरती क्यों है
ज़िन्दगी इसमें क़दम रखने से डरती क्यों है
एक तन्हा मैं बगावत की अलामत तो नहीं
ज़ह्न में फिर मेरी तस्वीर उभरती क्यों है
मेरी नज़रों से परे रहती है बरबाद हयात
सामने आती है मेरे तो संवरती क्यों है
रात औरों के घरों से तो चली जाती है
मेरे घर आती है जब भी तो ठहरती क्यों है
चाँद से मांग के शफ्फाफ सी किरनों का लिबास
चाँदनी छत पे दबे पाँव उतरती क्यों है
तुम जो हर सुब्ह सजा लेते हो ख़्वाबों की लड़ी
रोज़ 'जाफ़र' ये सरे-शाम बिखरती क्यों है
[3]
उसे हैरत है मैं जिंदा भी हूँ और खुश भी हूँ कैसे
ख़मोशी ही मेरे हक़ में है बेहतर, कुछ कहूँ कैसे
कहा था उसने हक़ गोई से अपनी बाज़ आ जाओ
कहा था मैं ने मैं पत्थर को हीरा मान लूँ कैसे
कहा उसने किसी मौक़े पे झुक जाना भी पड़ता है
कहा मैं ने कि सच्चाई को देखूं सर-नुगूं कैसे
कहा उसने कि चुप रह जाओ कोई कुछ भी कहता हो
कहा मैं ने कि मैं इंसान हूँ पत्थर बनूँ कैसे
कहा उसने कि तुम दुश्मन बना लेते हो दुनिया को
कहा मैं ने कि दुनिया की तरह मैं भी चलूँ कैसे
कहा उसने कि अपनों और बेगानों को पहचानो
कहा मैं ने कि इन लफ्ज़ों में ये मानी भरूं कैसे
मुझे 'जाफ़र रज़ा' फिर भी वो अपना दोस्त कहता है
इनायत उसकी मुझ पर इतनी ज़्यादा है गिनूं कैसे
*************************

मक़बूल ग़ज़लें / अहमद फ़राज़

[1]
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस से बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिले-खुश-फ़ह्म को तुझ से हैं उमीदें
ये आखिरी शमएं भी बुझाने के लिए आ
[2]
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
शिकवए-ज़ुल्मते-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था कि न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
[3]
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे-फलक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमा-फरोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी, जलवे इधर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
****************

बेहतरीन गज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[1]
खमोशी में हमेशा अम्न का साया नहीं होता
समंदर का लबो-लहजा बहोत अच्छा नहीं होता
मेरे ख़्वाबों में आने को वो अक्सर आ तो जाता है
मगर अंदाज़ उसकी खुश-मिज़ाजी का नहीं होता
सफ़र आसान हो जाता है ऐसे राहगीरों का
कि जिन की राह में कुहसार या दरिया नहीं होता
दरख्तों के हसीं झुरमुट में जब मिलते हैं दो साए
ज़बानों से, दिलों का उनके अन्दाज़ा नहीं होता
मुहब्बत जुर्म है, पढ़ना न इसकी दास्तानों को
कहा था माँ ने, लेकिन मुझ से अब ऐसा नहीं होता
हर एक आ आ के उसपर जब भी चाहे नाम लिख जाए
वरक दिल का कभी भी इस कदर सादा नहीं होता.
[2]
चलो हुकूमते-हाज़िर से इक सवाल करें
हम अपने ख़्वाबों को, क्यों रोज़ पायमाल करें
वो पत्थरों का अगर है तो मोम हम भी नहीं
बदल दें वक़्त को, हालात हस्बे-हाल करें
नकाबे-राह्बरी में खुदाओं के हैं बदन
खरीद कर, ये जिसे चाहें मालामाल करें
हमारा घर भी है सैलाबे-वक्त की ज़द में
बचेगा ये भी नहीं, कितनी देख-भाल करें
गिरह जो डाली है दिल में पड़ोसियों ने मरे
न खुल सकेगी, भले रिश्ते हम बहाल करें
सितमगरों से कभी दोस्ती नहीं अच्छी
क़रीब आयें तो ये ज़िन्दगी मुहाल करें
वो रंगों-नूर का पैकर है जो भी चाहे करे
सवाल उससे, हमारी है क्या मजाल, करें
[3]
मैं किसी जंगल के वीरानों में गुम हो जाऊँगा
इक हकीक़त बन के अफ़सानों में गुम हो जाऊँगा
जानता हूँ अश्क की सूरत कटेगी ज़िन्दगी
मोतियों के बे-बहा दानों में गुम हो जाऊँगा
मैं नशा करता नहीं, फिर भी नशे में चूर हूँ
देखना कल,मय के पैमानों में गुम हो जाऊँगा
मुझ से पोशीदा नहीं होगा किसी के दिल का हाल
कीमिया होकर, शफाखानों में गुम हो जाऊँगा
गो नहीं मैं खुश-गुलू पर लहने-शीरीं के लिए
ढल के मीठी तान में गानों में गुम हो जाऊँगा
[4]
बदन आबशार का दूध सा,था धुला-धुला मरे सामने
वहीं एक चाँद मगन-मगन, था नहा रहा मरे सामने
मैं तकल्लुफात में रह गया, कोई और उसकी तरफ़ बढ़ा
उसे देखते ही बसद खुशी, वो लिपट गया मरे सामने
कभी फूल बन के जो खिल सका, तो खिलूँगा उसके ही बाग़ में
मुझे अपने होंटों से चूम लेगा, वो दिलरुबा मरे सामने
मैं अज़ल से हुस्न परस्त हूँ, मुझे क्यों बुतों से न इश्क़ हो
मैं न बढ़ सकूँगा जो आ गया, कोई बुतकदा मेरे सामने
नहीं चाँद में वो गुदाज़, जैसा गुदाज़ उसके बदन में है
कोई फूल उसका बदल नहीं, है वो गुल-अदा मेरे सामने
कहा उसने मुझ से कि इश्क़ के, ये रुमूज़ तुम नहीं जानते
वो गिना रहा था खुशी-खुशी, मेरी हर खता मेरे सामने
[5]
अगर ख़्वाबों को मिल जाता कहीं से आइना कोई
यकीनन छोड़ जाता उनपे नक्शे-दिलरुबा कोई
नहाकर चाँदनी में फूल की रंगत नहीं बदली
मगर खुशबू के बहकावे से कुछ घबरा गया कोई
मैं सबका साथ सारी उम्र ही देता रहा लेकिन
न जाने बात क्या थी क्यों नहीं मेरा हुआ कोई
गुलों से रात कलियों ने बहोत आहिस्ता से पूछा
हमारा खिलना छुप कर क्या कहीं है देखता कोई
दरख्तों ने चमन में सुब्ह की आपस में सरगोशी
फलों का आना हम सब के लिए है हादसा कोई
शिकारी के निशाने पर न आता वो किसी सूरत
परिंदा जानता गर, उसका ही मुश्ताक़ था कोई
समंदर में फ़ना होना ही दरिया का मुक़द्दर था
इसी सूरत निकल सकती थी बस राहे-बका कोई
कोई खुशबू-बदन था या फ़क़त एहसास था मेरा
मेरे कमरे में दाखिल हो गया आहिस्ता-पा कोई
तकल्लुफ बर्तरफ जाफर उसी से पूछ लो चलकर
निकालेगा वही इस कशमकश में रास्ता कोई
*****************

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

परवेज़ फ़ातिमा की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
यकीं करो, न करो, है ये अख्तियार तुम्हें
वफ़ा पे अपनी, नहीं ख़ुद भी एतबार तुम्हें
दिलो-दमाग़ की तकरार से है कब फुर्सत
किसी भी लमहा मयस्सर नहीं क़रार तुम्हें
न जाने कैसा ये आलम है ख़ुद-फरेबी का
कि रेगज़ार भी लगता है लालाज़ार तुम्हें
अना तुम्हारी डुबो देगी एक दिन तुमको
न होश आ सका होकर भी शर्मसार तुम्हें
चुभोते आए हो अबतक जिन्हें ज़माने को
मिलेंगे देखना राहों में अब वो खार तुम्हें
वो कश्ती जिसको डुबोने की तुमको जिद सी है
वाही निकालेगी तूफां से बार-बार तुम्हें
[ 2 ]
कहते हैं वो तह्ज़ीबो-रिवायात मिटा दो
ये सब हैं बुजुर्गों के तिलिस्मात, मिटा दो
गैरों की हुकूमत हमें अच्छी नहीं लगती
गैरों की हुकूमत के निशानात मिटा दो
जिस तर्ह भी हम चाहेंगे तारीख लिखेंगे
जो राह में हायल हैं वो जज़बात मिटा दो
माज़ी पे तुम्हें फ़ख्र है, नादान हो शायद
बेहतर है कि माज़ी के खयालात मिटा दो
महफूज़ हो जिनमें कहीं नसलों की फ़जीलत
चुन-चुन के वो लायानी इबारात मिटा दो
*******************

रविवार, 10 अगस्त 2008

आजकी ग़ज़ल

अख्तर इमाम रिज़वी
अश्क जब दीदए-तर से निकला
एक काँटा सा जिगर से निकला
फिर न मैं रात गए तक लौटा
डूबती शाम जो घर से निकला
एक मैयत की तरह लागता था
चाँद जब क़ैदे-सहर से निकला
मुझको मंजिल भी न पहचान सकी
मैं की जब गुर्दे-सफर से निकला
हाय दुनिया ने उसे अश्क कहा
खून जो ज़ख्मे-नज़र से निकला
इक अमावस का नसीबा हूँ मैं
आज ये चाँद किधर से निकला

अनवर मसऊद
जो बारिशों में जले, तुंद आँधियों में जले
चराग वो जो बगोलों की चिमनियों में जले
वो लोग थे जो सराबे-नज़र के मतवाले
तमाम उम्र सराबों के पानियों में जले
कुछ इस तरह से लगी आग बादबानों को
की डूबने को भी तरसे जो कश्तियों में जले
यही है फैसला तेरा की जो तुझे चाहे
वो दर्दो-करबो-अलम की कठालियों में जले
दमे-फिराक ये माना वो मुस्कुराया था
मगर वो दीप, कि चुपके से अंखडियों में जले
वो झील झील में झुरमुट न थे सितारों के
चराग थे कि जो चांदी की थालियों में जले
धुंआ धुंआ है दरख्तों की दास्ताँ अनवर
कि जंगलों में पले और बस्तियों में जले
*************************

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

ओबैदुल्लाह अलीम की ग़ज़लें

अज़ीज़ उतना ही रक्खो कि जी संभल जाए
अब इस कदर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मी हैं यूँ तो बहोत, आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मिए-अनफ़ास से पिघल जाए
मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
जाहे वो दिल जो तमन्नाए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा वो उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाए
मैं वो चरागे-सरे-रहगुज़ारे-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाए
**************************
खयालो-ख्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी
न शब् को चाँद ही अच्छा न दिन को मेह्र अच्छा
ये हम पे बीत रही हैं क़यामतें कैसी
वो साथ था तो खुदा भी था मेहरबाँ क्या क्या
बिछड़ गया तो हुई हैं अदावतें कैसी
हवा के दोश पे रक्खे हुए च़राग हैं हम
जो बुझ गए तो हवा से शिकायतें कैसी
जो बे-ख़बर कोई गुज़र तो ये सदा दी है
मैं संगे-राह हूँ, मुझ पर इनायतें कैसी
नहीं कि हुस्न ही नैरंगियों में ताक़ नहीं
जुनूँ भी खेल रहा है सियासतें कैसी
ये दौरे-बे-हुनरां है बचा रखो ख़ुद को
यहाँ सदाक़तें कैसी, करामतें कैसी.
******************************

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

पसंदीदा शायरी / अख्तर शीरानी

दो ग़ज़लें
निकहते-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आकर
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर
किस क़दर तीरओ-तारीक है दुनिया मेरी
जल्वए-हुस्न की इक शमअ जला दे आकर
इश्क़ की चाँदनी रातें मुझे याद आती हैं
उम्रे-रफ़्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर
जौके-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क़ को मगरूर बना दे आकर
******************
मस्ताना पिए जा यूँ ही मस्ताना पिए जा
पैमाना तो क्या चीज़ है मयखाना पिए जा
कर गर्क मयो-जाम गमे-गर्दिशे अयियाम
अब ए दिले नाकाम तू रिन्दाना पिए जा
मयनोशी के आदाब से आगाह नहीं तू
जिया तरह कहे साक़िए-मयखाना पिए जा
इस बस्ती में है वहशते-मस्ती ही से हस्ती
दीवाना बन औ बादिले दीवाना पिए जा
मयखाने के हंगामे हैं कुछ देर के मेहमाँ
है सुब्ह करीब अख्तरे-दीवाना पिए जा
******************

बुधवार, 30 जुलाई 2008

वज़ीर आगा की एक ग़ज़ल

सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊं वो झोंका जो मेरे पास नहीं
पिघल चुका हूँ तमाज़त में आफताब की मैं
मेरा वुजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं
मेरे नसीब में कब थी बरहनगी अपनी
मिली वो मुझको तमन्ना कि बे-लिबास नहीं
किधर से उतरे कहाँ आके तुझ से मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रू-शनास नहीं
खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं
लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बॉस नहीं
*****************************

मंगलवार, 29 जुलाई 2008

परवेज़ फ़ातिमा की एक ग़ज़ल

उदास, सहमे हुए लोग, खामुशी हर सू
सदाएं सुनती हूँ क्यों आज मौत की हर सू
तड़पते ख्वाबों की उरियां-बदन इबारत से
सदाए-मर्सिया मिलती है गूंजती हर सू
चुभो के खंजरे-नफ़रत की नोक सीनों में
बरहना नाच रही है दरिंदगी हर सू
हमारे ख्वाब भी महफूज़ रह न पायेंगे
कि हमने ख़्वाबों की ताबीर देख ली हर सू
कहा किसी ने कि इस शहर से चली जाओ
यहाँ मिलेगी तुम्हें सिर्फ़ बेकली हर सू
समझ में कुछ नहीं आता मैं क्या करूँ 'परवेज़'
लगा रही है मुझे ज़ख्म, बेहिसी हर सू
********************

सोमवार, 28 जुलाई 2008

नोशी गीलानी की ग़ज़लें

[ 1 ]
महताब रुतें आयें, तो क्या-क्या नहीं करतीं
इस उम्र में तो लड़कियां सोया नहीं करतीं
किस्मत जिन्हें का दे शबे-ज़ुल्मत के हवाले
आँचल वो किसी नाम का ओढा नहीं करतीं
कुछ लड़कियां अंजामे-नज़र होते हुए भी
जब घर से निकलती हैं तो सोचा नहीं करतीं
यां प्यास का इज़हार मलामत है गुनह है,
फूलों से कभी तितलियाँ पूछा नहीं करतीं
जो लड़कियां तारीक मुक़द्दर हों, कभी भी
रातों को दिए घर में जलाया नहीं करतीं.
[ 2 ]
तुमने तो कह दिया कि मुहब्बत नहीं मिली
मुझको तो ये भी कहने की मुहलत नहीं मिली
नींदों के देस जाते, कोई ख्वाब देखते
लेकिन दिया जलने से फुर्सत नहीं मिली
तुझको तो खैर शहर के लोगों का खौफ था
मुझको ख़ुद अपने घर से इजाज़त नहीं मिली
बेजार यूँ हुए कि तेरे उह्द में हमें
सब कुछ मिला सुकून की दौलत नहीं मिली
[ 3 ]
कोई मुझको मेरा भरपूर सरापा लादे.
मेरे बाजू, मेरी आँखें, मेरा चेहरा लादे
कुछ नहीं चाहिए तुझ से ऐ मेरी उम्रे-रवां
मेरा बचपन, मेरे जुगनू, मेरी गुडिया लादे.
जिसकी आँखें मुझे अन्दर से भी पढ़ सकती हों
कोई चेहरा तू मेरे शह्र में ऐसा लादे
कश्तीए-जां तो भंवर में है कई बरसों से
या खुदा अब तू डुबो दे या किनारा लादे
*****************

रविवार, 27 जुलाई 2008

पसंदीदा ग़ज़लें / अदीम हाशमी

[ 1 ]
गम के हर इक रंग से मुझको शनासा कर गया
वो मेरा मोहसिन मुझे पत्थर से हीरा कर गया
हर तरफ़ उड़ने लगा तारीक सायों का गुबार
शाम का झोंका, चमकता शह्र मैला कर गया.
चाट ली किरनों ने मेरे जिस्म की सारी मिठास
मैं समंदर था वो सूरज मुझको सहरा कर गया.
एक लम्हे में भरे बाज़ार सूने हो गए,
एक चेहरा सब पुराने ज़ख्म ताज़ा कर गया.
रात भर हम रौशनी की आस में जागे 'अदीम'
और दिन आया तो आंखों में अँधेरा कर गया.
[ 2 ]
फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था.
सामने बैठा था मेरे, और वो मेरा न था.
ख़ुद चढा रक्खे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ
वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था.
ये सभी वीरानियाँ उसके जुदा होने से थीं,
आँख धुंधलाई हुई थी, शह्र धुंधलाया न था
सैकड़ों तूफ़ान लफ़्जों के दबे थे ज़ेरे-लब
एक पत्थर था खामोशी का कि जो हिलाता न था.
याद करके और भी तकलीफ होती थी 'अदीम'
अब सिवाए भूल जाने के कोई चारा न था.
[ 3 ]
शोर सा एक हर एक सिम्त बपा लगता है.
वो खमोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है.
कितना सकित नज़र आता है हवाओं का बदन
शाख पर फूल भी पथराया हुआ लगता है.
चीख उठती हुई हर घर से नज़र आती है
हर मकां शह्र का, आसेब-ज़दा लगता है.
आँख हर रह से चिपकी ही चली जाती है,
दिल को हर मोड़ पे कुछ खोया हुआ अगता है.
सोचता हूँ, तो हर इंसान पुतानी सूरत
देखता हूँ तो हर इक शख्स नया लागता है.
देर से ढूंढ रहा हूँ फ़क़त इक शब् की पनाह
साफ़ इनकार हर इक दर पे लिखा लगता है.
जान तू किसके लिए अपनी गंवाता है 'अदीम'
खूबसूरत है वो, लेकिन तेरा क्या लगता है.
*********************

जोश मलीहाबादी की ग़ज़लें

[ 1 ]
क़दम इन्सां का राहे-दह्र में थर्रा ही जाता है.
चले कितना ही कोई बच के, ठोकर खा ही जाता है.
नज़र हो ख्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आशना, फिर भी,
हुजूम-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है.
खिलाफे-मसलेहत मैं भी समझता हूँ, मगर वाइज़
वो आते हैं तो चेहरे पर तगैयुर आ ही जाता है.
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएं आंधियां बनकर
मगर जो घिर के आता है, वो बादल छा ही जाता है.
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फितरत है इन्सां की
मुसीबत में खयाले-ऐशे-रफ्ता आ ही जाता है.
[ 2 ]
जहन्नम सर्द है, जन्नत के दर खुलवाये जाते हैं.
सरे-महशर पुजारी हुस्न के बुलवाए जाते हैं.
गज़ब है ये अदा उनकी दमे-आराइशे-गेसू,
झुकी जाती हैं आँखें ख़ुद-बखुद शर्माए जाते हैं.
शबे-वादा ये कैसी तीरगी है,वक्त क्या होगा
तमन्नाओं के गुंचे हमनफस कुम्हलाये जाते हैं.
कोई हद ही नहीं इस इह्तरामे-आदमीयत की
बदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं.
बहोत जी खुश हुआ ऐ हमनशीं कल 'जोश' से मिलकर,
अभी अगली शराफत के नमूने पाये जाते हैं.
[ 3 ]
पहचान गया, सैलाब है, इसके सीने में अरमानों का.
देखा जो सफीने को मेरे, जी छूट गया तूफानों का.
ये शोख फिजा, ये ताज़ा चमन,ये मस्त घटा, ये सर्द हवा,
काफिर है अगर इस वक्त भी कोई रुख न करे मैखानों का.
ये किसकी हयात-अफरोज नज़र ने छेड़ दिया है आलम को,
हर ख़ाक के अदना ज़र्रे में, हंगामा है लाखों जानों का.
हाँ जुल्मो-सितम से भी क़दरे, पड़ती हैं खराशें सीने में,
सबसे मुह्लिक है ज़ख्म मगर, ऐ हुस्न तेरे एहसानों का.
कमबख्त जवानी सीने में, नागन की तरह लहराती है,
हर मौजे-नफस इक तूफां है, कुनैन-शिकन अरमानों का.
ऐ 'जोश' जुनूं की शामो-सहर में वक्त की ये रफ़्तार नहीं,
दानाओं की तूलानी सदियाँ,और एक नफस दीवानों का.
**************************

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

पसंदीदा शायरी / शकील बदायूनी

तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
गमे-आशिकी से कह दो, रहे-आम तक न पहोंचे
मुझे खौफ है ये तुहमत, मेरे नाम तक न पहोंचे.
मैं नज़र से पी रहा था, तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ जिंदगी भर, कभी जाम तक न पहोंचे.
नई सुब्ह पर नज़र है, मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़ता-रफ़ता, कहीं शाम तक न पहोंचे.
वो नवाए-मुज़महिल क्या, न हो जिसमें दिल की धड़कन
वो सदाए-अहले-दिल क्या, जो अवाम तक न पहोंचे.
उन्हें अपने दिल की खबरें, मेरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उनसे रूठ जाऊं, तो पयाम तक न पहोंचे
ये अदाए-बेनियाज़ी, तुझे बे-वफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुखी क्या, कि सलाम तक न पहोंचे.
जो नक़ाबे-रुख हटा दी, तो ये क़ैद भी आगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन, कोई बाम तक न पहोंचे.
वही इक ख़मोश नगमा, है शकील जाने-हस्ती,
जो जुबान तक न आए, जो कलाम तक न पहोंचे.
[ 2 ]
मेरी जिंदगी पे न मुस्कुरा, मुझे जिंदगी का अलम नहीं.
जिसे तेरे गम से हो वास्ता, वो खिज़ाँ बहार से कम नहीं
मुझे रास आयें खुदा करे, यही इश्तिबाह की सा'अतें
उन्हें एतबार-वफ़ा तो है, मुझे एतबार-सितम नहीं.
वही कारवां वही रास्ते, वही जिंदगी वही मरहले,
मगर अपने अपने मुकाम पर, कभी तुम नहीं कभी हम नहीं.
न वो शाने-जब्रे-शबाब है, न वो रंगे क़ह्रो-इताब है,
दिले-बेकरार पे इन दिनों, है सितम यही कि सितम नहीं.
न फ़ना मेरे न बका मेरी, मुझे ऐ शकील न ढूँडिए,
मैं किसी का हुस्नो-ख़याल हूँ, मेरा कुछ वुजूदो-अदम नहीं.
[ 3 ]
शायद आगाज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का.
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का.
उनसे कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह न करे
वो भी मफहूम न समझें मेरे अफ़साने का.
देखना देखना ये हज़रते-वाइज़ ही न हों,
रास्ता पूछ रहा है कोई मयखाने का.
बे त'अल्लुक़ तेरे आगे से गुज़र जाता हूँ,
ये भी इक हुस्ने-तलब है तेरे दीवाने का.
हश्र तक गर्मिए-हंगामए-हस्ती है शकील
सिलसिला ख़त्म न होगा मेरे अफ़साने का.
***************

बुधवार, 23 जुलाई 2008

शकेब जलाली की ग़ज़लें

[ 1 ]
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
[ 2 ]
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जनता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
[ 3 ]
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.
************************

हबीब जालिब की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
और सब भूल गए हर्फे-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना
न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको
हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना.
हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना.
दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए
सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना.
कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना
[ 2 ]
ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम.
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम.
मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए,
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम.
शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम.
उसके बगैर आज बहोत जी उदास है,
'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम.
****************************