दो ग़ज़लें
निकहते-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आकर
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर
किस क़दर तीरओ-तारीक है दुनिया मेरी
जल्वए-हुस्न की इक शमअ जला दे आकर
इश्क़ की चाँदनी रातें मुझे याद आती हैं
उम्रे-रफ़्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर
जौके-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क़ को मगरूर बना दे आकर
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मस्ताना पिए जा यूँ ही मस्ताना पिए जा
पैमाना तो क्या चीज़ है मयखाना पिए जा
कर गर्क मयो-जाम गमे-गर्दिशे अयियाम
अब ए दिले नाकाम तू रिन्दाना पिए जा
मयनोशी के आदाब से आगाह नहीं तू
जिया तरह कहे साक़िए-मयखाना पिए जा
इस बस्ती में है वहशते-मस्ती ही से हस्ती
दीवाना बन औ बादिले दीवाना पिए जा
मयखाने के हंगामे हैं कुछ देर के मेहमाँ
है सुब्ह करीब अख्तरे-दीवाना पिए जा
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मंगलवार, 5 अगस्त 2008
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