कोमल और सुर्ख हथेलियों में
गुलाब की खुशबू तलाशने वाले लोग
बेखबर हैं
इतिहास के उस क़लम से
जो टाँकता जा रहा है उनके विरुद्ध
धूल और कीचड में सने हाथों की
मोटी-मोटी नसों में दौड़ती
तेज़ाबी बगावत।
इतिहास का क़लम
पेड़ पर बैठा कोई पक्षी नहीं है
जो बहेलियों के लासे में आ जाय
और बोलने लगे बहेलियों की भाषा
इतिहास का कलम
आज उन हाथों में है
जो मिटटी से गुलाब उगाना जानते हैं
और देश के नक्शे की
हर लकीर पहचानते हैं .
******************
रविवार, 31 अगस्त 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें