हाँ मैं खड़ी हूँ
इतने विशवास से खड़ी हूँ
तुम मेरे परिधान के सौन्दर्य पर
कोई गीत लिखो,
मेरे चेहरे की लुनाई पर मोह से भर उठो.
मेरे बालों के रेशमीपन को
अँगुलियों में लपेट लो.
हाँ, मैं खडी रहूंगी.
परिधान के भीतर, छलनी-छलनी
तार-तार, क्षत-विक्षत मेरा मन
अभी साँस लेता रहेगा
हाँ, सौन्दर्य की ही बात करो
यह जानने की ज़रूरत भी क्या
कि यह सुरमई काली घटाओं के रंग
तुम्हारे छल और विश्वासधात की
तूलिका ने दिए हैं.
बालों का क्या है, चमकते रहेंगे.
विशवास कि मौत...
शरीर की मौत ही नहीं होती.
****************
[दिल्ली 1986]
शनिवार, 23 अगस्त 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें