तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
यहीं मेरी माँ ने अन्तिम हिचकियाँ ली हैं
यहीं मेरे पिता ने आंखों की कटोरियों में
मनोरम दृश्य सजाये हैं
यहीं के कब्रिस्तान में
मेरी एक बेटी दफ़्न है
मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ
यहाँ मैं ने आंसुओं के बीज बोए हैं
यहाँ मैं ने ग़मों की खेती की है
यहाँ मैं ने पीड़ा के फूल उगाए हैं
सब दुःख झेला है यहाँ
अपने लिए, तुम्हारे लिए,
नयी कोंपलों के लिए भी
मैं भी तुम्हारे शहर का बाशिंदा हूँ, लेकिन
तुम क्यों बज़िद हो
लिखने के लिए मेरे नाम
मौत का परवाना
मैं नहीं हूँ कोई मुसाफिर या
कोई अजनबी
मैं भी तुम्हारी तरह ही
इस शहर का बाशिंदा हूँ
देखो मेरी आंखों में आँखें डालकर देखो
एक बार बस एक बार.......
मार डाले गए
खिड़कियों के पट बंद कर लिए गए
लोग दरवाजे की ओट में छुप गए
हम मार डाले गए
होंठ कांपते रहे, खून की धार बहती रही
लोग देखते रह गए, हम मार डाले गए
कानून चुप रहा, मुहाफिज़ भी चुप रहे
सब निगाहें नीची किए, खड़े रह गए
हम मर डाले गए
बाद में बहुत चर्चे हुए, आंसू भी बहाए गए
फिर हर बार की तरह हम भुला दिए गए
लोग देखते रह गए, हम मर डाले गए.
बड़ी प्यारी लाग रही है
गौरैया के नन्हे-नन्हे बच्चों ने
अभी-अभी देखी है सतरंगी दुनिया
वो चीं-चीं के संगीत पर
मेज़ से फुदक कर कुर्सियों पर जाते हैं
कुर्सियों से फुदक कर अलमारी पर आते है
वो खेलना चाहते हैं आँख-मिचोली का खेल
दुनिया की तमाम चीज़ों के साथ
उन्होंने अभी नहीं देखा है कर्फ्यू का आतंक
नहीं देखी हैं धुएँ की काली लकीरें
नहीं भोग है उन्होंने अभी
पिता का अंतहीन इंतज़ार
गौरैया के बच्चों को ये दुनिया
बड़ी प्यारी लग रही है.
विस्थापित की वेदना
माँ का ज़रा भी मन नहीं लगता
बंद कमरे उसे जेल मालूम होते हैं
उमस से उसकी जान निकली जाती है
सब कुछ अजनबी सा लगता है.
उसे याद आता है झरोका
खुला आँगन
अमरूद के पेड़
पिछवाडे से आती हुई ठंडी बयार
लेकिन वहाँ अब कुछ भी नहीं है
न खुला आँगन, न खुला दिल
न अमरूद के पेड़
न मुहब्बत की छाँव
माँ बावली हो जाती है
कमरे से निकल कर गली में आती है
गंदे नाले पर पड़ी
चारपाई पर बैठकर
रोने लगती है
समय को कोसने लगती है.
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शुक्रवार, 15 अगस्त 2008
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1 टिप्पणी:
इस पोस्ट के लिए आप का शुक्रिया ...अच्छा लगा पढ़ कर ..
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