शनिवार, 23 अगस्त 2008

बे-ईमान / शैलेश ज़ैदी [लघु-कथा]

बामियान में महात्मा बुद्ध अचानक एक दिन रेतीले पहाडों के बीच शांत मुद्रा में खड़े दिखायी दिए। एक लम्बी यात्रा तै करते-करते उनका क़द इतना ऊंचा हो गया था कि आस-पास के पहाड़ भी उनके सामने छोटे पड़ गए। मूर्ति पूजा उन्हें पसंद नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने ठहरने के लिए कोई घनी आबादी चुनने के बजाय एक ऐसा मैदान चुना जिसमें केवल पहाड़ थे। हरियाली कहीं दूर तक नहीं थी. भूला-भटका कोई यात्री यदि वहाँ तक पहुँच भी जाय तो दो बूँद पानी तक को तरस जाय. वो निश्चिंत थे कि यहाँ आकर कोई उनकी पूजा नहीं करेगा. इसलिए इस शान्ति-खंड में चुप-चाप पहाडों के झुरमुट में खड़े हो जाने में कोई हर्ज नहीं था. अजानता को भी उन्होंने इसी लिए चुना था. जनता रहित स्थान साँय-साँय तो करता है पर इस निःशब्द ध्वनि में अनायास ही ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है. बामियान के उस सपाट चटियल मैदान तक आदमियों का कोई झुंड तो कभी नहीं आया, हाँ कुछ सैलानी चिडियां वहाँ ज़रूर पहुँच गयीं. चिडियों ने वहाँ जो कुछ देखा और महसूस किया उस से उनकी आँखें खुल गयीं. ये चिडियां ब्रह्म-ज्ञान>बम्ह्ज्ञान >बम्मियान >बामियान चिल्लाती हुई आकाश में उड़ गयीं. रोशनी का एक सैलाब सा उमड़ पड़ा. आवाजों की गूँज इतनी तेज़ थी, कि और सारी आवाजें गूंगी हो गयीं. अफगानी आँखें ब्रह्म-ज्ञान के उस प्रतीक पर पड़ने के लिए विवश थीं. और वह प्रतीक इन आंखों की हलचल से बेखबर था. भारत से आधुनिक देवताओं के चिंतन का सनातनी सोमरस मंगाया गया और उस से अफगानी धर्म संसद की हरी शराब घोलकर काकटेल तैयार की गई. आंखों ने सारी की सारी काकटेल अपने भीतर उतार लली. उनका रंग ललाल हो गया और उन से चिंगारियां फूटने लगीं. चिंगारियां नशीले ब्रह्मास्त्रों में बदल गयीं. धमाके के साथ शांत मुद्रा में खड़े महात्मा बुद्ध की विशाल काया टूट कर विलुप्त हो गई. हलकी सी आंधी आई और उस काया की रेत उड़कर समूचे अफगानिस्तान पर छा गई. सैलानी चिडियों को चिंता हुई और वो पहले की तरह एक बार फिर बामियान के उस मैदान में उतरीं. इस बार उनकी आंखों में बारूद की गंध भर गई. बेचैनी से वो चीख पडीं बामियान>बेमियायाँ>बेइमान>बे-ईमान >बे-ईमान. और चीखती हुई उड़ गयीं.

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[अलीगढ़, नवम्बर 2000]

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