शनिवार, 23 अगस्त 2008

चुभन /शैलेश ज़ैदी


बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं
'हर हर महादेव' के नारे
संकरी गललियों के सन्नाटे चीर रहे हैं

मन्दिर के घंटे निःस्वर हैं
मस्जिद के आँगन में ईंटों के टुकड़ों का
ढेर लगा है
बस्ती ऊंघ रही है, मरघट जाग रहा है
मैं अपने घर की खिड़की से झाँक रहा हूँ
वहशीपन को अंक रहा हूँ.

क्या शिव की उत्ताल जटा से
फिर कोई गंगा निकलेगी ?
या कोई पैगम्बर आकर
स्नेह भरा उपदेश सुनाएगा
जिस से निद्रा टूटेगी ?
बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं।

[अलीगढ़/ 1968]

कोई टिप्पणी नहीं: