बुधवार, 6 अगस्त 2008

रक्स / नून मीम राशिद

[ फैज़ अहमद फैज़ और मीरा जी के समकालीन उर्दू कवियों में नून मीम राशिद (1910-1975) आधुनिक उर्दू कविता के जनक माने जाते हैं. गुजरांवाला के एक छोटे से गाँव कोट भग्गा अकाल गढ़ में जन्मे नून मीम राशिद अर्थशास्त्र के एम.ए. थे. यूनाईटेड नेशन में सेवारत रहकर अनेक देशों में घूमते रहे.अंत में लन्दन में निधन हुआ. उनके विरुद्ध हमेशा साजिश होती रही कि उनकी कविता को अधिक लोकप्रियता न मिल सके.उनका प्रथम आजाद नज्मों का संकलन मावरा 1940 में प्रकाशित हुआ.]
ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरजाँ हूँ कहीं ऐसा न हो
रक्स-गह के चोर दरवाज़े से आकर जिंदगी
ढूंढ ले मुझको निशाँ पा ले मेरा
और जुरमे-ऐश करते देख ले

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
रक्स की ये गरदिशें
एक मुबहम आसिया के दौर हैं
कैसी सरगर्मी से गम को रौंदता जाता हूँ मैं
जी में कहता हूँ कि हाँ
रक्स-गह में जिंदगी के झांकने से पेश्तर
कुल्फतों का संग्रेज़ा एक भी रहने न पाय

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी मेरे लिए
एक खुनी भेडिये से कम नाहीं
ऐ हसीनो-अजनबी औरत उसी के डर से मैं
हो रहा हूँ लम्हा-लम्हा और भी तेरे क़रीब
जानता हूँ तू मेरी जाँ भी नहीं
तुझसे मिलने का फिर इम्काँ भी नहीं
तू ही मेरी आरजूओं की मगर तमसील है
जो रही मुझसे गुरेज़ाँ आज तक

ऐ मेरे हम-रक्स मुझको थाम ले
अहदे पारीना का मैं इन्सां नहीं
बंदगी से इस दरो-दीवार की
हो चुकी है हैं ख्वाहिशें बेसोजो-रंगों-नातवाँ
जिस्म से तेरे लिपट सकता तो हूँ
जिंदगी पर मैं झपट सकता तो हूँ
इस लिए अब थाम ले
ऐ हसीनो-अजनबी औरत मुझे अब थाम ले
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