सोमवार, 11 अगस्त 2008

किसी ने पुकारा / ऐन ताबिश

किसी ने पुकारा
घनेरे सियह बादलों से
अँधेरी सिसकती हुई रात के आंचलों से
ख़मोशी में डूबे हुए
सर्द एहसास के जंगलों से

एक मज़बूत पुख्ता मकां के सुतूनों में
लर्जिश हुई
देखते देखते रक्स करती ज़मीं थम गई
आसमां से उदासी की बारिश हुई
एक लम्हे को ख्वाहिश हुई
छोड़कर सारा ज़ोमे-सफ़र
बीच रस्ते में रुक कर, ज़रा ठह्र कर
जानी-पहचानी आवाज़ के लम्स को
अपने अन्दर कहीं
फिर से ज़िन्दा करूँ
एक भूला-भुलाया हुआ क़िस्सए जाँफ़िज़ा
फिर से ताज़ा करूँ
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