फिर एक दिन ऐसा आएगा
आंखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बां से नुत्क़ो-सदा
की हर तितली उड़ जायेगी
इक काले समंदर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हंसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
खूं की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रागिनियाँ सो जायेंगी
और नीली फ़िज़ा की मख़मल पर
हंसती हुई हीरे की ये कनी
ये मरी जन्नत मेरी ज़मीं
इसकी सुब्हें इसकी शामें
बे जाने हुए बे समझे हुए
इक मुश्ते-गुबारे-इन्सां पर
शबनम की तरह रो जायेंगी
हर चीज़ भुला दी जायेगी
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में ?
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा
बच्चों के दहन से बोलूंगा
चिडियों की जुबां में गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे, धरती से
और कोपलें अपनी ऊँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूंगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना आहंगे-ग़ज़ल
अंदाजे-सुखन बन जाऊँगा.
रुख्सारे-उरूसे-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जाड़े की हवाएं दामन में
जब फ़स्ले-खिजां को लायेंगी
रह्वों के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों में मेरे
हंसने की सदाएं आएँगी
धरती की सुनहली सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर किस्सा मेरा अफसाना है
हर आशिक है सरदार यहाँ
हर माशूका सुल्ताना है
मैं एक गुज़रता लम्हा हूँ
अय्याम के अफसूँ खाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र हो जाऊँगा
माजी की सुराही के दिल से
मुस्तकबिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाऊँगा
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मंगलवार, 5 अगस्त 2008
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2 टिप्पणियां:
waah!!..
वाह! आनन्द आ गया. आभार इस प्रस्तुति के लिए.
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