शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

मौत का रक़्स / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

अभी हाल में उडीसा में ईसाइयों के साथ जो कुछ घटित हुआ और उसके प्रतिरोध में कुछ नेताओं के मुखौटे पहन कर जो जुलूस निकाले गए उनसे प्रभावित होकर ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने यह नज़्म लिखी है जिसे पेश किया जा रहा है. परवेज़ फ़ातिमा

मौत का रक़्स
मौत का रक़्स अगर देखना चाहो तो मेरे साथ चलो
कुछ मनाज़िर हैं मेरी आंखों में
देखो उस शहर में पेशानियों पर मौत का पैगाम लिए
जाने पहचाने कुछ अफराद चले आते हैं
अपने सफ़्फ़ाक क़वी हाथों में समसाम लिए
उनकी आंखों में है अदवानी शराबों का खुमार
उनके चेहरों पे हैं सावरकरी तेवर के सभी नक़्शो-निगार
लोग कहते हैं कि ये मौत के हैं ठेकेदार
ये जहाँ जाते हैं होता है वहाँ मौत का रक़्स
चीखें बन जाती हैं इनके लिए घुँघरू की सदा
सुनके होते हैं मगन लाशों की बदबू की सदा
मौत के रक़्स में है इनकी ज़फर्याबी का जश्न
ये मनाते हैं बड़े शौक़ से इंसानों की बेताबी का जश्न
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