ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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मंगलवार, 20 जनवरी 2009

जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।

जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।

मैं इस कुहरे के जंगल में घुटन महसूस करता हूँ।

मैं अपने नफ़्स को पाता हूँ रौशन चाँद की सूरत,

मगर कुछ रोज़ से उसमें गहन महसूस करता हूँ।

मिला है मुझसे कोई हमज़ुबां जब गैर मुल्कों में,

मैं उस मिटटी में भी बूए-वतन महसूस करता हूँ।

बहोत ठंडी हवाएं जब भी उसका जिस्म छूती हैं,

समंदर में निराला बांकपन महसूस करता हूँ।

मेरी फिकरें मेरे एहसास को बेदार करती हैं,

मैं दिल में सुब्ह की ताज़ा किरन महसूस करता हूँ।

सभी फ़ितरी मनाजिर दर-हक़ीक़त शायराना हैं,

मैं उनमें नकहते-शेरो-सुख़न महसूस करता हूँ।

कहाँ तक मैं सफ़र में साथ दे पाऊंगा ऐ हमदम,

अंधेरों से उलझकर, कुछ थकन महसूस करता हूँ।

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