सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती।
ये दुनिया महज़ झूट की आदी सी है लगती।
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नफ़रत की हैं चिंगारियां जब पहले से दिल में,
जाड़े की गरम धूप भी बरछी सी है लगती।
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किस बात की दहशत है किसी को नहीं परवा,
इस शह्र की ये बस्ती तो सहमी सी है लगती।
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उस गाय को सब पालने की रखते हैं ख्वाहिश,
जो गाय बहोत ज्यादा दुधारी सी है लगती।
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ये दौर मुलम्मों का है लाजिम है सजावट,
महँगी है वही शय जो अनोखी सी है लगती।
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हर बात मैं कह देता हूँ क्यों खुल के ग़ज़ल में,
जो तंग-नज़र हैं उन्हें चुभती सी है लगती।
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करते नहीं गर आप सताइश तो न कीजे,
मुझको ये अदा आपकी अच्छी सी है लगती।
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