ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / देख लेते जो कभी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शनिवार, 24 जनवरी 2009

देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.

देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.
राह में मारते इस तर्ह न पत्थर मुझको.
मैं बियाबान में दम तोड़ रहा था जिस दम,
याद बेसाख्ता आया था मेरा घर मुझको.
कर लिया दोस्तों ने तर्के-तअल्लुक़ मुझसे,
वो ग़लत कब थे समझते थे जो खुदसर मुझको.
राह देखी जो सलीबों की तो दिल झूम उठा,
बस पसंद आ गया ये मौत का बिस्तर मुझको.
दिन गुज़र जाता था खाते हुए ठोकर अक्सर,
रात में भी न हुआ चैन मयस्सर मुझको.
कम-से कम साजिशें तो होतीं नहीं मेरे ख़िलाफ़,
अच्छा होता कि समझते सभी कमतर मुझको.

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