सर झुकाते नहीं ख़ुददार किसी के आगे॥
देख कर आंखों से भी कुछ नहीं कहता कोई,
लब सिले रहते हैं क्यों आज बदी के आगे॥
ग़म ज़माने का है जैसा भी हमें है मंज़ूर,
हाथ फैलाएंगे हरगिज़ न ख़ुशी के आगे॥
माँगने वाले हुआ करते हैं बेहद छोटे,
बावन अँगुल के हुए विश्नु बली के आगे॥
किस तरह करता मैं कैफ़ीयते-दिल का इज़हार,
लफ़्ज़ ख़ामोश थे आँखों की नमी के आगे।
जब भी मैं घर से निकलता हूं तो लगता है मुझे,
रास्ते बन्द हैं सब उसकी गली के आगे।
दिल भी एक शीशा है जिसको है तराशा उसने,
सब हुनर हेच हैं इस शीशागरी के आगे॥
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