ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा /सफ़र का सारा मंज़र लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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गुरुवार, 6 मई 2010

सफ़र का सारा मंज़र सामने था

सफ़र का सारा मंज़र सामने था।
कहीं बच्चे कहीं घर सामने था्।

हमें जो ले गया मक़्तल की जानिब,
थका-माँदा वो लश्कर सामने था॥

मिली थी नोके-नैज़ा पर बलन्दी,
मैं हक़ पर था मेरा सर सामने था।

फ़ना के साहिलों से क्या मैं कहता,
बक़ा क जब समंदर सामने था॥

तलातुम मौजे-दरिया में न होता,
कोई प्यासा बराबर सामने था॥

हँसी आती थी नादानी पे उसकी,
मज़ा ये है सितमगर सामने था॥
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