ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / सरों से ऊँची फ़सीलें हैं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / सरों से ऊँची फ़सीलें हैं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 5 मई 2010

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये।
न जाने किसकी ये चीख़ें हैं क्या नज़र आये॥
उमीदो-बीम के जंगल में हूँ घिरा हुआ मैं,
तमाम शाख़ें-ही-शाख़ें हैं क्या नज़र आये॥
वो पहले जैसी बसीरत कहाँ इन आंखों में,
बहोत ही धुंधली सी शक्लें हैं क्या नज़र आये॥
तअल्लुक़ात कई बार टूटे और बने,
हमारे रिश्तों में गिरहें हैं क्या नज़र आये॥
गिरी सी पड़ती हैं इक दूसरे पे होश कहाँ,
नशे में चूर सी यादें हैं क्या नज़र आये॥
न जाने कब से मैं ताबूत में हूं रक्खा हुआ,
धँसी-धँसी हुई कीलें हैं क्या नज़र आये॥
अजीब नज़अ का आलम है मैं पुकारूँ किसे,
न चारागर न सबीलें हैं क्या नज़र आये॥
*********
फ़सीलें=चार्दीवारियाँ ।उमीदो-बीम=आशा-निराशा ।बसीरत=बुद्धिमत्ता य चातुर्य। गिरहें=गाँठें । नज़अ का अलम= अन्तिम समय । चारगर=वैद्यक । सबीलें=उपाय ।