शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

नज़रें बचाकर निकल गया

वो सामने से नज़रें बचाकर निकल गया।
एक और ज़ुल्म करके सितमगर निकल गया।
अच्छा हुआ कि आंखों से आंसू छलक पड़े,
सीने में मुन्जमिद था समंदर निकल गया।
मैं गहरी नींद में था किसी ने जगा दिया,
आँखें खुलीं तो ख्वाब का मंज़र निकल गया।
इज़हार मैंने हक़ का, सरे-आम कर दिया,
तेज़ी से कोई मार के पत्थर निकल गया।
मैं उससे मिल के लौटा, तो उसके ख़याल में,
डूबा था यूँ, कि चलता रहा, घर निकल गया।
बिजली गिरी तो घर मेरा वीरान कर गई,
तूफ़ान सीना चीर के बाहर निकल गया।
अब क्या करेंगे मेरा ज़माने के ज़लज़ले,
मुद्दत से दिल में बैठा था जो डर, निकल गया।

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3 टिप्‍पणियां:

श्रद्धा जैन ने कहा…

bhaut bhaut sunder gazal
aapko aaj pahli baar padha
ab padhte raenge

شہروز ने कहा…

बहुत खूब!आपके तख्लीकी-सर्जनात्मक जज्बे को सलाम.
आप अच्छा काम कर रहi हैं.
फ़ुर्सत मिले तो हमारे भी दिन-रात देख लें...लिंक है:
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/

वीनस केसरी ने कहा…

बहुत बेहतरीन ग़ज़ल
जैसा की मैंने पहले भी कहा है
युग विमर्श का प्रयास बहुत सराहनीय है
आपके यहाँ बहुत अच्छी स्तर की गज़ले पढने को मिलती है

वीनस केसरी