करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था।
बच्चे के टुकड़े कब हुए, बच्चे में कुछ न था।
सब सुन रहे थे गौर से, दिलचस्पियों के साथ,
फ़न था सुनाने वाले का, क़िस्से में कुछ न था।
नदियाँ पहाड़ सब थे मेरे ज़हन में कहीं,
नक्शे में बस लकीरें थीं, नक्शे में कुछ न था।
दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,
दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।
किस सादगी से उसने मुझे दे दिया जवाब,
ख़त आया उसका, और लिफ़ाफ़े में कुछ न था।
क़ायम थी मेरी ज़ात, खुदा के वुजूद से,
वरना तो एक मिटटी के ढाँचे में कुछ न था।
परदा हटा तो हुस्ने-मुजस्सम था बेनकाब,
परदा मेरी नज़र का था, परदे में कुछ न था।
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3 टिप्पणियां:
दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,
दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।
bahut sundar, shukriyaa
जनाब ज़ैदी जाफ़र रज़ा साहिब आपकी उमदा ग़ज़ल पढ़ कर प्रसन्ता हुई किंतु मतले में निगाह-ए-सानी की आवश्क्ता है!
करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था
धोका था सब निगाह का, जलवे में कुछ न था
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