मंगलवार, 30 सितंबर 2008

करतब कमाल का था

करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था।

बच्चे के टुकड़े कब हुए, बच्चे में कुछ न था।

सब सुन रहे थे गौर से, दिलचस्पियों के साथ,

फ़न था सुनाने वाले का, क़िस्से में कुछ न था।

नदियाँ पहाड़ सब थे मेरे ज़हन में कहीं,

नक्शे में बस लकीरें थीं, नक्शे में कुछ न था।

दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,

दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।

किस सादगी से उसने मुझे दे दिया जवाब,

ख़त आया उसका, और लिफ़ाफ़े में कुछ न था।

क़ायम थी मेरी ज़ात, खुदा के वुजूद से,

वरना तो एक मिटटी के ढाँचे में कुछ न था।

परदा हटा तो हुस्ने-मुजस्सम था बेनकाब,

परदा मेरी नज़र का था, परदे में कुछ न था।

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3 टिप्‍पणियां:

एस. बी. सिंह ने कहा…

दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,

दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।

bahut sundar, shukriyaa

Purshottam Abbi 'Azer' ने कहा…
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Purshottam Abbi 'Azer' ने कहा…

जनाब ज़ैदी जाफ़र रज़ा साहिब आपकी उमदा ग़ज़ल पढ़ कर प्रसन्ता हुई किंतु मतले में निगाह-ए-सानी की आवश्क्ता है!


करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था
धोका था सब निगाह का, जलवे में कुछ न था