शनिवार, 27 सितंबर 2008

हैरत-ज़दा है सारा जहाँ

हैरत-ज़दा है सारा जहाँ देख के मुझे।
क्या गहरी नींद आयी है खंजर तले मुझे।
मैं सुब्हे-रफ़्ता की हूँ शुआए-फुसूं-तराज़,
लगते नहीं हैं शाम के तेवर भले मुझे।
खुशहाल ज़िन्दगी से न था क़ल्ब मुत्मइन,
फ़ाकों की रहगुज़र ने दिए तजरुबे मुझे।
मैं अपनी मंज़िलों का पता जानता हूँ खूब,
गुमराह कर न पायेंगे ये रास्ते मुझे।
वाक़िफ़ रुमूज़े-इश्क़ से मैं यूँ न था कभी,
रास आये तेरे साथ बहोत रतजगे मुझे।
कब देखता हूँ तेरे एलावा किसी को मैं,
कब सूझता है तेरे जहाँ से परे मुझे।
सुनता रहा मैं गौर से कल तेरी गुफ्तुगू,
मफहूम तेरी बातों के अच्छे लगे मुझे।
ग़म अपने घोलकर मैं कई बार पी चुका,
अब हादसे भी लगते नहीं हादसे मुझे।

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