रविवार, 14 सितंबर 2008

ये सिल्सिला कोई तनहा

ये सिलसिला कोई तनहा हमारे घर से न था।
बचा था कौन जो मजरूह इस ख़बर से न था।
हमारे ख़्वाबों में थी कोई और ही तस्वीर,
कभी हमारा सरोकार इस सेहर से न था।
कुछ और तर्ह का था आज मसअला दरपेश,
तबाहियों का ये सैलाब उसके दर से न था।
बचाया उसने न होता, तो डूब जाते सभी,
अगरचे रिश्ता कोई उसका इस सफ़र से न था।
सभी के जिस्मों पे चस्पां था मौत का साया,
रूखे-हयात फ़रोजां अजल के डर से न था।
दिए थे लहरों ने कितने ही ज़ख्म साहिल को,
मगर उसे कोई शिकवा किसी लहर से न था।
अजब दरख्त था, शाखें थीं आसमानों में,
ज़मीं का राब्ता मुत्लक़ किसी समर से न था।
हमारे मुल्क की परवाज़ थम गई कैसे,
हमारा मुल्क तो महरूम बालो-पर से न था।
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

क्या बात है!!! जैदी साहेब को पढ़ना हमेशा सुखद अनुभव रहता है. आपका आभार.