रविवार, 14 सितंबर 2008

मेरी अपनाई हुई / निसार नासिक

मेरी अपनाई हुई क़दरों ने ही नोचा मुझे।
तू ने किस तह्ज़ीब के पत्थर से ला बाँधा मुझे।
मैंने साहिल पर जला दीं मस्लेहत की कश्तियाँ,
अब किसी की बेवफाई का नहीं खटका मुझे।
दस्तो-पा बस्ता खड़ा हूँ प्यास के सहराओं में,
ऐ फ़राते-ज़िन्दगी ! तूने ये क्या बख्शा मुझे।
चन्द किरनें जो मेरे कासे में हैं उनके इवज़,
शब के दरवाज़े पे भी देना पड़ा पहरा मुझे।
साथियो ! तुम साहिलों पर चैन से सोते रहो,
ले ही जायेगा कहीं बहता हुआ दरिया मुझे।
*********************

कोई टिप्पणी नहीं: