गुरुवार, 11 सितंबर 2008

जो सच था


जो सच था, अगर उसको रक़म कर दिया होता।

दुनिया ने मेरा हाथ क़लम कर दिया होता।

आता न ज़बां पर कभी हालात का शिकवा,

बस ख़ुद को सुपुर्दे-शबे-ग़म कर दिया होता।

औरों की तरह मैं भी अगर चाहता तुझको,

ये सर तेरी देहलीज़ पे ख़म कर दिया होता।

ख़्वाबों का बदन तेज़ हरारत से न भुनता,

पेशानी को एहसास की नम कर दिया होता।

शायद मेरी उल्फ़त में कहीं कोई कमी थी,

वरना तुझे मायल-ब-करम कर दिया होता।

करता वो अगर मुझ पे ज़रा सी भी इनायत,

कुर्बान ये सब जाहो-हशम कर दिया होता।

दुनिया में अगर मुझको जिलाना ही था मक़सूद,

सामान भी जीने का बहम कर दिया होता।

जब तुझको पता था कि मयस्सर नहीं खुशियाँ,

जो उम्र मुझे दी, उसे कम कर दिया होता।

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2 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

जब तुझको पता था कि मयस्सर नहीं खुशियाँ,

जो उम्र मुझे दी, उसे कम कर दिया होता।
कितनी अच्छी बातें कही , सुंदर रूप में।

वीनस केसरी ने कहा…

बहुत बहुत बहुत सुंदर ग़ज़ल पढ़वाई आपने
युग विमर्श की हर पोस्ट जानदार होती है

सभी शेर बहुत बेहतरीन

वीनस केसरी