मंगलवार, 9 सितंबर 2008

वादिए-पेचां [अलीगनामा]

तुमने इस वादिए-पेचां को बहोत पास से देखा होगा
तुमने महसूस किया होगा कि खुशरंग तिलिस्मों का जहाँ,
रोज़ो-शब होता है आबाद यहाँ।
इल्मो-हिकमत का तसव्वुर है फ़क़त मामलए-सूदो-ज़ियाँ,
सब हैं आपस में हरीफ़े-दिलो-जां।
हर तरफ़ फैले हैं खुदसाख्ता ज़ुल्मात के बे-नूर मकाँ,
कुर्सियां नस्ब हैं हर सिम्त परस्तिश के लिए.
लोग इक-दूसरे से मिलते हैं साजिश के लिए.
आँखें बिछ जाती हैं आका की नवाज़िश के लिए.
दोस्ती रस्मे-वफ़ा से महरूम,
ज़िन्दगी बाहमी रिश्तों की दुआ से महरूम,
लोग चलते हैं कुछ इस तर्ह, नहीं छोड़ते पैरों के निशाँ,
हुस्ने अख्लाको-अमल, बारे-गरां।
मस्जिदें होती हैं तामीर ग़सब-करदा ज़मीनों पे यहाँ।
हिर्स की गूंजती है जिनमें अजां।
यानी अल्लाह की अज़मत का है इक़रार
फ़क़त जीनते-असवाते-ज़बां।
रीश सुन्नत है दिखावे के लिए।
टोपियाँ सर पे छलावे के लिए।
सब मुस्लमान हैं ईमान के दावे के लिए।
सबकी पेशानी पे -
तमगात की सूरत से उभर आए हैं सज्दों के निशाँ।
अट्ठे-पंजे की सियासत में हैं मसरूफ नमाजी बनकर।
खुश हैं ख्वाबोब में हुई जंगों के गाजी बनकर.

वो मुलाजिम हो,कि उस्ताद, कि हो दानिश्जू,
कौंसिलों-युनिअनो-कोर्ट की भीनी खुशबू,
इंतखाबों के वसीले से चला देती है अपना जादू.
जो भी चुन जाय, समझ लो उसे मेराज मिली,
खिल गई उसके मुक़द्दर की कली.
दाखले और तक़र्रुर में सुनी जाती हैं बातें उसकी,
मुहरे उसके हैं, बिसातें उसकी।
मुर्गो-माही के तनावुल से सजी रहती हैं रातें उसकी।
महफिलों में है चरागाँ उस से,
रोब खाता है मुसलमाँ उस से।
इक़्तदारात का मिलना है यहाँ राहते-जाँ।
होता है कुर्सीनाशीनों को खुदाई का गुमाँ.
समझे जाते हैं वही अहले-नज़र, अहले-जुबां।
साहबे-इल्म फ़क़त मुहर-ब-लब रहते हैं,
ज़िन्दगी उनकी है मानिन्दे-खिजां।

हाल ऐसा ही रहा गर-
तो ख़बर किसको है कल क्या होगा !
तुमने इस वादिए-पेचां को बहोत पास से देखा होगा।
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1 टिप्पणी:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

एक कड़वे सच का सटीक चित्रण।