गुरुवार, 18 सितंबर 2008

कहाँ से आए हैं, कैसे हुए हैं दहशत-गर्द।

कहाँ से आये हैं, कैसे हुए हैं दहशत-गर्द।
तबाहियों की ज़बां बोलते हैं दहशत-गर्द।
पता बताते नहीं क्यों ये अपनी मंज़िल का,
लहू ज़मीन का पीते रहे हैं दहशत-गर्द।
मुझे है लगता मज़ाहिब सभी हैं तंगख़याल,
कि इनकी सोच के सब सिसिले, हैं दहशत-गर्द।
ये मस्जिदें, ये कलीसा, ये बुतकदे अक्सर,
नशे में आते हैं जब, पालते हैं दहशत-गर्द।
हमारे जिस्म के अन्दर हैं कितने और भी जिस्म,
जहाँ छुपे हुए पाये गये हैं दहशत गर्द।
तेरे दयार में जाने में सर की खैर नहीं,
तेरे दयार के सब रास्ते है दहशतगर्द।
बिला वजह तो न लें जान बेगुनाहों की,
अगर खुदा को खुदा जानते हैं दहशत-गर्द।

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3 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अच्छी और मौजूँ गजल।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बेहतरीन।
सही लिखा-

बिला वजह तो न लें जान बेगुनाहों की,
अगर खुदा को खुदा जानते हैं दहशत-गर्द।