तुझे भी लौटके जाना है दूर घर अपने।
संभल के खोल ज़रा आँधियों में पर अपने।
जुलूस में तू अगर साथ भी न आ पाये,
जहाँ भी है तू वहीं से मिला दे स्वर अपने।
तभी तो सोच सकेगा सही-ग़लत क्या है,
गरीब पेट से उबरे कभी अगर अपने।
वो आसमान उठाने की बात करते हैं,
उठा न पाये कभी ठीक से जो सर अपने।
मैं ख़ुद को पाता हूँ हर दिन नए से जंगल में,
अजीब किस्म के होते हैं रोज़ डर अपने।
सभी ने ख़ुद ही लड़ी हैं लडाइयां अपनी,
तुझे भी लड़ने पड़ेंगे सभी समर अपने।
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के. एल. 154, कवि नगर
गाजियाबाद, 201002
रविवार, 7 सितंबर 2008
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1 टिप्पणी:
'तुझे भी लड़ने पड़ेंगे सभी समर अपने'
बहुत ख़ूब
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