सोमवार, 15 सितंबर 2008

क्या ज़माना आ गया है / माजिद अल-बाक़री

क्या ज़माना आ गया है दोस्त भी दुश्मन लगे।
जिस्म, दिल की आँख से देखो तो इक मद्फ़न लगे।
छाँव में अपने ही कपडों के बदन जलता रहा,
चारपाई घर लगे और पायंती आँगन लगे।
बे-मआनी लफ्ज़ की कसरत है हर तहरीर में,
मसअला जो भी है, इक बढ़ती हुई उलझन लगे।
कोरे कागज़ पर लकीरों के घने जंगल तो हैं,
आज का लिखा हुआ कल के लिए ईंधन लगे।
ज़हन में उगते हैं अब बेफस्ल चेहरों के गुलाब,
जो भी सूरत सामने आती है, इक चिलमन लगे।
बस्तियों को तोड़ देता है घरौंदों की तरह,
ये बुढापा भी मुझे इंसान का बचपन लगे।
छुपके जब साया जड़ों में बैठ जाए पेड़ की,
उजड़ी-उजड़ी डालियों का सिलसिला गुलशन लगे।
धूप में बे-बर्ग माजिद हो गई शाखे-सदा,
वो उमस है जून की गर्मी में भी सावन लगे।
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3 टिप्‍पणियां:

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

छुपके जब साया जड़ों में बैठ जाए पेड़ की,
उजड़ी-उजड़ी डालियों का सिलसिला गुलशन लगे।
धूप में बे-बर्ग माजिद हो गई शाखे-सदा,
वो उमस है जून की गर्मी में भी सावन लगे।

बहुत ख़ूब...शानदार...

admin ने कहा…

माजिद साहब की गजल पढवाने का शुक्रिया। यह शेर तो बहुत ही प्यारा लगा-
कोरे कागज़ पर लकीरों के घने जंगल तो हैं,
आज का लिखा हुआ कल के लिए ईंधन लगे।

Udan Tashtari ने कहा…

बस्तियों को तोड़ देता है घरौंदों की तरह,
ये बुढापा भी मुझे इंसान का बचपन लगे।


कोरे कागज़ पर लकीरों के घने जंगल तो हैं,
आज का लिखा हुआ कल के लिए ईंधन लगे।

--क्या बात है माजिद साहेब को पढ़कर आनन्द आ गया. आपका बहुत आभार.