गुरुवार, 25 सितंबर 2008

कशिश आमों की ऐसी है

कशिश आमों की ऐसी है, कि तोते रोज़ आते हैं।
इसी सूरत से हम भी तुमसे मिलने रोज़ आते हैं।
तलातुम है अगर दरिया में घबराने से क्या हासिल,
हमारी ज़िन्दगी में तो ये खतरे रोज़ आते हैं।
परीशाँ क्यों हो उस कूचे में तुम अपने क़दम रखकर,
बढी है दिल की धड़कन ? ऐसे लम्हे रोज़ आते हैं।
सभी नामेहरबाँ हैं, गुल भी, मौसम भी, फ़िज़ाएं भी,
हमारे इम्तेहाँ को, कैसे-कैसे रोज़, आते हैं।
कभी ख्वाबों पे अपने गौर से सोचा नहीं मैंने,
मेरे ख्वाबों में नामानूस चेहरे रोज़ आते हैं।
कहा मैंने कि ये तोहफा मुहब्बत से मैं लाया हूँ,
कहा उसने कि ऐसे कितने तोहफ़े रोज़ आते हैं।
तुम अपने घर के दरवाज़े दरीचे सब खुले रक्खो,
कि उसके जिस्म की खुशबू के झोंके रोज़ आते हैं।
मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।
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3 टिप्‍पणियां:

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

तुम अपने घर के दरवाज़े दरीचे सब खुले रक्खो,
कि उसके जिस्म की खुशबू के झोंके रोज़ आते हैं।
मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।


बेहतरीन ग़ज़ल है...

seema gupta ने कहा…

"gazal to but sunder ha no doubt, but ye aam ka naam suntey hee humara to dil lalchane lga ab kya krein???"

Regards

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।

बेहतरीन ग़ज़ल है...