गुरुवार, 11 सितंबर 2008

दिनेश शुक्ल के फागुनी दोहे

रोम-रोम केसर घुली, चंदन महके अंग।
कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रंग।
रचा महोत्सव पीत का, फागुन खेले फाग।
साँसों में कस्तूरियाँ, बोये मीठी आग।
पलट-पलट मौसम तके, भौचक निरखे धूप।
रह-रहकर चितवे हवा, ये फागुन के रूप।
मन टेसू-टेसू हुआ, तन सब हुआ गुलाल।
अँखियाँ-अँखियाँ बो गया, फागुन कई सवाल।
होठों-होठों चुप्पियाँ, आँखों-आँखों बात।
सपने में गुलमोहर के, सड़क हँसी कल रात।
अनायास टूटे सभी, संयम के प्रतिबन्ध।
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीगे छंद।
अंखियों से जादू करे, नजरों मारे मूंठ।
गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ-सौ झूठ।
भूली-बिसरी याद के, कच्चे-पक्के रंग।
देर तलक गाते रहे, हम फागुन के संग।
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2 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत अच्छा। बरसात के समय में भी फागुन का अहसास हुआ।

Udan Tashtari ने कहा…

आनन्द आ गया पढ़कर दोहे!!!