बुधवार, 17 सितंबर 2008

पहाडों पर भी होती है


पहाडों पर भी होती है ज़राअत देखता हूँ मैं।
मेरे मालिक ! तेरे बन्दों की ताक़त देखता हूँ मैं।
जमाल उसका ही सुब्हो-शाम क्यों रहता है आंखों में,
उसी की सम्त क्यों मायल तबीअत देखता हूँ मैं।
हवा की ज़द पे रौशन करता रहता हूँ चरागों को,
ख़ुद अपने हौसलों में शाने-कुदरत देखता हूँ मैं।
जो बातिल ताक़तों के साथ समझौता नहीं करते,
वही पाते हैं बाद-अज़-मर्ग इज्ज़त देखता हूँ मैं।
वो ख़ुद हो साथ या हो साथ साया उसकी उल्फ़त का,
मुसीबत भी नहीं लगती मुसीबत देखता हूँ मैं।
ज़माने की नज़र में खुदकशी है बुज़दिली, लेकिन,
न जाने इसमें क्यों बूए-बगावत देखता हूँ मैं।
मेरी जानिब वो मायल आजकल रहता है कुछ ज़्यादा,
बहोत मखसूस है उसकी इनायत देखता हूँ मैं।
तेरी दुनिया में हैरत से तेरे ईमान-ज़ादों को,
सुनाते रोज़ अहकामे-शरीअत देखता हूँ मैं.
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1 टिप्पणी:

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

पहाडों पर भी होती है ज़राअत देखता हूँ मैं।
मेरे मालिक ! तेरे बन्दों की ताक़त देखता हूँ मैं।
जमाल उसका ही सुब्हो-शाम क्यों रहता है आंखों में,
उसी की सम्त क्यों मायल तबीअत देखता हूँ मैं।
हवा की ज़द पे रौशन करता रहता हूँ चरागों को,
ख़ुद अपने हौसलों में शाने-कुदरत देखता हूँ मैं।

बहुत ख़ूब...