सोमवार, 1 सितंबर 2008

जाने उन आंखों में कैसी शाम थी / सलाहुद्दीन परवेज़

मेरी खुशियाँ, मेरी झोली, मेरे अरमां धूल हैं
चाँदनी के देस में बीमार मेरा ज़ह्र है
जिसके हाथों में गुलाबी रंग हो पकडो उसे
जिसकी झीलों में शफक की ताज़गी हो
उसकी आँखें छीन लो
मेरी खुशियाँ, मेरी झोली, मेरे अरमां धूल हैं

जाओ अब मेरा तरन्नुम
रेत की तारीकियों में डाल दो
सारी नज्में, सारी गज़लें
दास्तानें, अनगिनत प्यारी किताबें फाड दो
क्योंकि मैंने याद के सीने पे एक दिन लिख दिया
जाने उन आंखों में कैसी शाम थी, नम ज़िन्दगी
सादा कापी पर कई शक्लें बनाकर सो गई
मेरे कमरे से हवा मुझको उड़ाकर ले गई
घर के आँगन से तेरी बातों की मेहँदी उड़ गई
जाने उन आंखों में कैसी शाम थी।
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