बुधवार, 10 सितंबर 2008

तुम सुधि बन-बन कर बार-बार / भगवती चरण वर्मा

तुम सुधि बन-बन कर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे।
फिर विस्मृति बन तनमयता का ,
दे जाती हो उपहार मुझे।

मैं करके पीड़ा को विलीन,
पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ।
अब असह बन गया देवि,
तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे।

माना वह केवल सपना था,
पर कितना सुंदर सपना था।
जब मैं अपना था और सुमुखि,
तुम अपनी थीं, जग अपना था।

जिसको समझा था प्यार, वही
अधिकार बना पागलपन का।
अब मिटा रहा प्रतिपल तिल-तिल,
मेरा निर्मित संसार मुझे।
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3 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत अच्छी कविता। धन्यवाद।

Shastri JC Philip ने कहा…

"अब मिटा रहा प्रतिपल तिल-तिल,
मेरा निर्मित संसार मुझे। "

पुनर्निमाण में लग जायें!!



-- शास्त्री जे सी फिलिप

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Udan Tashtari ने कहा…

भगवती चरण वर्मा को पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.