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गुरुवार, 18 सितंबर 2008

आहट न हुई थी / मुहसिन नक़वी

आहट न हुई थी न कोई परदा हिला था।
मैं ख़ुद ही सरे-मंजिले-शब चीख पड़ा था।
हालांकि मेरे गिर्द थीं लम्हों की फ़सीलें,
फिर भी मैं तुझे शह्र में आवारा लगा था।
तूने जो पुकारा है तो बोल उट्ठा हूँ वरना,
मैं फ़िक्र की दहलीज़ पे चुप-चाप खड़ा था।
फैली थीं भरे शह्र में तनहाई की बातें,
शायद कोई दीवार के पीछे भी खड़ा था।
या बारिशे-संग अबके मुसलसल न हुई थी,
या फिर मैं तेरे शह्र की रह भूल गया था।
इक तू की गुरेज़ाँ ही रहा मुझसे बहर तौर,
इक मैं की तेरे नक्शे-क़दम चूम रहा था।
देखा न किसी ने भी मेरी सिम्त पलटकर,
मुहसिन मैं बिखरते हुए शीशों की सदा था।
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