गुरुवार, 19 नवंबर 2009

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥
चान्द सूरज मिल गये, जीने का तेवर आ गया ॥

मैं क्षितिज के पार की पढ़ कर लिखावट था चकित,
किन्तु अब मेरी समझ में अक्षर अक्षर आ गया॥

रख दिया मैं ने जब उसके सामने जीवित यथार्थ,
देखने भी ठीक से पाया न था, ज्वर आ गया॥

बन्द थीं राधा की आखें, मुस्कुराते थे अधर,
स्वप्न में वंशी बजाता जब वो गिरिधर आ गया ॥

कर रहा था मैं भी जल क्रीड़ाएं मन की झील में,
क्रूर था ऐसा समय बन कर निशाचर आ गया ॥

कल मिले थे पर्वतों की ओट में हम, सोच कर,
मन ने लीं अँगड़ाइयाँ, आँखों में निर्झर आ गया ॥
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2 टिप्‍पणियां:

वाणी गीत ने कहा…

बन्द थीं राधा की आखें, मुस्कुराते थे अधर,
स्वप्न में वंशी बजाता जब वो गिरिधर आ गया ....
पंक्तियों के माधुरी में डूबे ही थे कि ....

क्रूर था ऐसा समय बन कर निशाचर आ गया ....
गजब का उलट फेर ...!!

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'रख दिया…'
क्या बात है!