कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब ।
आँखों में अब भी है उसी मंज़र का इज़्तेराब ॥
चुभती रही निगाहों में बस मेरी ख़ुदसरी ,
देखा किसी ने भी न सुख़नवर का इज़्तेराब ॥
इस ख़ौफ़ से के रिश्ते कहीं मुन्तशिर न हों,
सर पर उठाये फिरता रहा घर का इज़्तेराब ॥
आँखों में आँसुओं का अजब ख़ल्फ़िशार था,
मासूम सीपियों में था गौहर का इज़्तेराब ॥
किस तर्ह आब्दीदः हुआ वो सितम शआर,
मैं देखता ही रह गया पत्थर का इज़्तेराब ॥
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टिप्पणी : तबाहकुन = विनाशकारी, इज़्तेराब=तड़प, मंज़र = दृश्य, ख़ुदसरी= अवज्ञाकारिता, सुखनवर = कवि, मुन्तशिर=बिखरना,ख़ल्फ़िशार= खलबली, मासूम= अबोध, गौहर=मोती, आब्दीदः =सजल आँखें, सितम श'आर=अत्याचार ढाने वाला,