पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।
ख़ूँ रिस रहा था यूँ के बहोत बेकली हुई॥
ख़ाली थे घर के ताक़्चे, कुछ भी न था वहाँ,
मजबूरियों की फ़स्ल खड़ी थी पकी हुई॥
दालान से गुज़रती थी कल तक जो दोपहर,
अब उसके पास धूप नहीं थी बची हुई ॥
क्या रोशनाई वक़्त के सहरा से माँगता ,
अश्कों की थी सियाही वहाँ भी भरी हुई॥
यादों के ख़ैमे साथ लिये घूमता रहा,
चूल्हे पे दुख के, देग़ थी दिल की चढ़ी हुई॥
देखूँगा क्य मैं खोल के माज़ी की खिड़कियाँ,
एक फाँस सी है रूह के अन्दर चुभी हुई ॥
पेशानियाँ शऊर की हैं आज मुज़महिल,
इदराक की है नब्ज़ बहोत ही थकी हुई॥
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