ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था।
ख़मोश लब थे सभी सब का घर बरहना था॥
कोई भी अपनी रविश से न बाज़ आया कभी,
रिवायतों का भरम टूट कर बरहना था॥
ये किस को रौन्द रहे थे जफ़ा-शआर यहाँ,
ये किस का जिस्म यहाँ ख़ाक पर बरहना था॥
अगरचे शह्र में शमशीरे-बेनियाम था वो,
सभी को इल्म था वो किस क़दर बरहना था॥
वो क़ाफ़िला था असीराने-ज़ुल्म का कैसा,
के ख़ाक जिस्म से लिप्टी थी, सर बरहना था॥
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