गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है।
रोशनी जो भी नज़र आती है सहमी हुई है ॥
शाम आयी है मगर ज़ुल्फ़ बिखेरे हुए है,
रात की नब्ज़ पे उंग्ली कोई रक्खी हुई है॥
दोपहर जिस्म झुलस जाने से है ख़ौफ़-ज़दा,
धूप कुछ इतनी ग़ज़बनाक है बिफरी हुई है॥
आस्मानों पे है सरसब्ज़ दरख़्तों का मिज़ाज,
कोख धरती की बियाबानों सी उजड़ी हुई है॥
सोज़िशे-दर्द से सीने में सुलगता है अलाव,
दिल के अन्दर कहीं इक फाँस सी बैठी हुई है॥
लब कुशाई पे हैं पाबन्दियाँ ख़ामोश हैं सब,
अक़्ल कुछ गुत्थियाँ सुल्झाने में उल्झी हुई है॥
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1 टिप्पणी:
अक़्ल कुछ गुत्थियाँ सुल्झाने में उल्झी हुई है.nice
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