ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / मिली थी जो भी विरासत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शनिवार, 27 मार्च 2010

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं।
ग़मों का बोझ था ऐसा के मुस्कुराया न मैं॥

इनायतें तेरी मुझ पर हमेशा होती रहीं।
तेरी नज़र में कभी हो सका पराया न मैं॥

तेरे हुज़ूर में जब भी मैं सज्दा-रेज़ हुआ
,तेरी रिज़ा के सिवा और कुछ भी लाया न मैं॥

वो तेरी हम्द है जो नगमए दिलो-जाँ है,
कलाम और किसी लमहा गुनगुनाया न मैं॥

तमाम लोग सताइश करें तो क्या होगा,
ये ज़िन्दगी है अबस गर तुझे ही भाया न मैं॥
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