वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो।
चलो तो राह में कोई निशान मत छोड़ो॥
दबीज़ पर्दों में रखते हैं राज़ आज के लोग,
खुलो किसी से न रस्मे-मुआमलत छोड़ो॥
तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं करते मत करो लेकिन,
किसी अमल से न वजहे मुख़ालेफ़त छोड़ो॥
नशे में आते हो जब ख़ुद को भूल जाते हो,
वो काम जिसपे हँसें लोग उसकी लत छोड़ो॥
तुम्हारी बातें दमाग़ों में कुछ उतर तो सकें,
शऊरो-फ़ह्म की ऐसी कोई लुग़त छोड़ो॥
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