बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।
हमारे देश में उर्दू किसे अच्छी नहीं लगती॥
हवाएं धीमे-धीमे चल रही हों हलकी ख़ुनकी हो,
फ़िज़ा ऐसी बता दे तू किसे अच्छी नहीं लगती।
वो महफ़िल जिसमें तेरा ज़िक्र हो हर एक के लब पर,
तजल्ली हो तेरी हर सू किसे अच्छी नहीं लगती॥
ग़ज़ालाँ-चश्म होने का शरफ़ मुश्किल से मिलता है,
निगाहे-वहशते-आहू किसे अच्छी नहीं लगती॥
मुहब्बत तोड़कर रस्मे-जहाँ की सारी दीवारें,
अगर हो जाये बे-क़ाबू किसे अच्छी नहीं लगती॥
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