शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले।

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले.
मल्लाह तू भी कश्ती से पतवार खींच ले.
तस्लीम है मुझे कि मैं बागी हूँ, ज़िन्दगी!
क्या सोचती है, मुझको सरे-दार खींच ले.
ज़ख्मी है संगबारियों से वो बुरी तरह,
बढ़कर कोई उसे पसे-दीवार खींच ले.
आजिज़ हूँ, सल्ब कर ले तू मुझसे मेरा शऊर,
अपनी इनायतों की ये रफ़्तार खींच ले.
तंग आ चूका वो अपनों के बेजा सुलूक से,
अच्छा है उसको महफ़िले-अग़यार खींच ले.
हो जाय इल्म जब के नहीं वो वफ़ा-शनास
कैसे न अपना हाथ तलबगार खींच ले.
इस ज़िन्दगी का हाल भी है कुछ उसी तरह,
हम पढ़ रहे हों और तू अखबार खींच ले.
ढीले पड़े हैं साज़, शिकस्ता हैं उंगलियाँ,
बेहतर है अब सितार से हर तार खींच ले।
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2 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

बेशक बहुत ही प्रभावशाली रचना ...काबिले तारीफ़

मेरी कलम -मेरी अभिव्यक्ति

"अर्श" ने कहा…

इस ज़िन्दगी का हाल भी है कुछ उसी तरह,
हम पढ़ रहे हों और तू अखबार खींच ले.


wah wese to har sher umda hai magar is sher ke kya kahane mashaallah...



arsh