गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

हाथ मेरा थाम कर परछाइयां ले जायेंगी.

हाथ मेरा थाम कर परछाइयां ले जायेंगी.
ज़ह्न की ये वादियाँ जाने कहाँ ले जायेंगी.
ज़ुल्मतों के दरमियाँ से मंज़िलों तक एक दिन,
है यकीं मुझको मेरी बीनाइयां ले जायेंगी.
आस्मां पर फल, ज़मीं में हैं दरख्तों की जड़ें,
इनकी तह तक इश्क की पह्नाइयां ले जायेंगी.
ला-मकाँ की सरहदों से भी गुज़रना है मुहाल,
कुर्बतें इन सरहदों के दरमियाँ ले जायेंगी.
हिर्स में डूबे हुए हैं लोग सर से पाँव तक,
क्या ख़बर किसको, कहाँ, ये पस्तियाँ ले जायेंगी.
जो रहा महफूज़ तूफाँ में, सफीना और था,
अब किसी को क्या बचाकर कश्तियाँ ले जायेंगी।
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1 टिप्पणी:

गौतम राजऋषि ने कहा…

अब ये अलग-अलग तरीके के वाह-वाह कहा~म से लाऊँ शैलेश जी.....
ये पूरी गज़ल इतनी गज़ब की गेयता समेते हुये है कि पढ़ते -पढ़ते बरबस धुन पे गाने लगा। ये शेर "ज़ुल्मतों के दरमियाँ से मंज़िलों तक एक दिन/है यकीं मुझको मेरी बीनाइयां ले जायेंगी" बहुत जबरदस्त\
वैसे बस एक की तारीफ़ कर छोड़ना ज्यादती होगी इस लाजवाब गज़ल के लिये..
मतला तो आपका हमेशा ही जबरदस्त होता है सर