सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.

इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.
घर का बिखरा हुआ सामन समेटा जाये.
कोई अनजाना सा भय बैठ न जाये मन में,
किसी बच्चे को कभी इतना न डांटा जाये.
कैसा था स्वप्न जिसे देख के कुछ ऐसा लगा,
बेवजह जैसे अचानक कोई धमका जाये.
स्वार्थ के घोल में शब्दों को बनाओ न मधुर,
इनको सुन-सुन के कहीं कोई न उकता जाये.
उसको घर लौट के जाना है, वो चिंतित भी है,
कहीं बारिश न हो ऐसी कि वो घबरा जाये.
हमने देखा है समय को भी उगाते हुए फूल,
कल ये सम्भव है वो फिर अपने को दुहरा जाये.
मंजिलें उसकी मेरी एक हैं, उससे कह दो,
जब वो जाये तो मुझे साथ में लेता जाये.
एक ही दृश्य कहाँ तक कोई देखेगा भला,
सामने से मेरे ये दृश्य हटाया जाये।
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1 टिप्पणी:

गौतम राजऋषि ने कहा…

"कोई अनजाना सा भय बैठ न जाये मन में/किसी बच्चे को कभी इतना न डांटा जाये"
और
"स्वार्थ के घोल में शब्दों को बनाओ न मधुर/इनको सुन-सुन के कहीं कोई न उकता जाये"

बहुत भाये हैं.....