खनक हँसी की न गूंजी, न गुनगुनाया कभी।
वो चाँद घर के दरीचों में फिर न आया कभी।
कई शताब्दियाँ आयीं और बीत गयीं,
कृषक न अपना मुक़द्दर संवार पाया कभी।
भरोसा उसपे करूँ भी, तो किस तरह मैं करूँ,
कभी वो लगता है अपना, तो है पराया कभी।
अछूत ज़ात में जन्मा, अछूत बनके जिया,
मुझे किसी ने, गले से नहीं लगाया कभी।
सहारा देती जो, ऐसी न थी कोई दीवार,
किसी दरख्त की मुझको मिली न छाया कभी।
वो पहले मेरे ही घर में था, अब पड़ोसी है,
मैं क्या कहूँ, न मेरा साथ उसको भाया कभी।
ज़मीन छत की बहुत जल रही थी, धूप थी सख्त,
सुनहरा वक़्त वहाँ, हमने था बिताया कभी।
किसी को जाने की उसके, कोई भनक न लगी,
किसी भी आँख ने आंसू नहीं बहाया कभी।
**************
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर लिखा है....पढना अच्छा लगा।
एक टिप्पणी भेजें