शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.
के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था.
कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया,
के वक्त, साथ कभी, मेरे हम-रकाब न था.
समंदरों को, मेरे ज़र्फ़ का था अंदाजा,
जभी तो, उनके लिए मैं, फ़क़त हुबाब न था.
ज़बां पे कुफ्ल लगा कर, न बैठता था कोई,
वो दौर ऐसा था, सच बोलना अज़ाब न था.
गुज़र गया वो भिगो कर सभी का दामने-दिल,
कोई भी ऐसा नहीं था जो आब - आब न था.
मैं हर परिंदे को शाहीन किस तरह कहता,
हकीक़तें थीं मेरे सामने, सराब न था.
तवक्कोआत का फैलाव इतना ज़्यादा था,
के घर लुटा के भी अपना, वो बारयाब न था.

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