मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो. / नासिर काज्मी

आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो.
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो.
ये क्या कि रोज़ एक सा गम एक सी उमीद,
इस रंजे बे-खुमार की अब इन्तेहा भी हो.
ये क्या कि एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र,
जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो.
टूटे कभी तो ख्वाबे-शबो-रोज़ का तिलिस्म,
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो.
दीवानागीए-इश्क को क्या धुन है इन दिनों,
घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो.
जुज़ दी, कोई माकन नहीं देहर में जहाँ,
रहज़न का खौफ भी न रहे, दर खुला भी हो.
हर ज़र्रा एक मह्मिले-इबरत है दश्त का,
लेकिन किसे दिखाऊं, कोई देखता भी हो.
हर शय पुकारती है पसे-परदए-सुकूत,
लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो.
फुर्सत में सुन शगुफ़्तगिए-गुंचा की सदा,
ये वो सुखन नहीं जो किसी ने कहा भी हो.
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चयन एवं प्रस्तुति : डॉ. परवेज़ फ़ातिमा

1 टिप्पणी:

"अर्श" ने कहा…

काज्मी साहब आपकी बहोत ही कम ग़ज़ल पढ़ी है मैंने ,बहोत ही खुबसूरत ग़ज़ल लिखी है आपने तीसरा शे'र को कमाल का है बहोत ही बढ़िया भवभिब्क्ति है बहोत सुंदर ढेरो बधाई आपको..

अर्श