शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.
हालात हैं ऐसे कि है मर जाने की ख्वाहिश.
उस कतरए-नैसाँ को थी आगोशे-सदफ़ में,
मानिन्दे-गुहर हुस्न से भर जाने की ख्वाहिश.
अब दे भी चुके सुब्ह को सब अपने उजाले,
बेहतर है करो मिस्ले-कमर जाने की ख्वाहिश.
गुलरंग न हो पाता ज़मीं का कभी दामन,
फूलों की न होती जो बिखर जाने की ख्वाहिश.
मयखाने के दस्तूर से वाकिफ तो नहीं हम,
दिल में है मगर बादाओ-पैमाने की ख्वाहिश.
ऐ काली घटाओ न हमें खौफ दिलाओ,
हम रखते हैं ज़ुल्मात से टकराने की ख्वाहिश.
झरने न उतरते जो पहाडों से ज़मीं पर,
दिल में ही दबी रहती निखर जाने की ख्वाहिश।
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2 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

यह ग़ज़ल बहुत पसंद आयी

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चाँद, बादल और शाम

गौतम राजऋषि ने कहा…

गुलरंग न हो पाता ज़मीं का कभी दामन,
फूलों की न होती जो बिखर जाने की ख्वाहिश

...वाह शैलेश जी क्या बात है
और आखिरी शेर तो बस....सोचने के अंदाज़ पर झूम उठे हम